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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
बद्धता न हो तो काम चलता है। छन्द की लयात्मकता के भीतर भाव की अन्विति, प्रभाव और तीव्रता अखंड रहती है।
'सिद्धार्थ की भांति ‘वर्धमान' में वंशस्थ, मालिनी व द्रुतविलंबित आदि अनेक वर्ण-वृत्तों का सुंदर प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वोत्तरी प्रधानता वंशस्थ छन्द की है। "आधुनिक महाकवियों में अनूप शर्मा ने इस छन्द का प्रयोग सबसे अधिक किया है। 'वर्धमान' महाकाव्य में कुछ स्थानों को छोड़कर आद्योपान्त इसी छन्द का प्रयोग हुआ है। इससे पूर्व शायद ही किसी कवि ने इस छन्द का इतना विशद प्रयोग किया हो।" वर्धमान में विशेषतया चर्चित वंशस्थ छंद समवृत्त है, जिसमें नगण, भगण, मगण, व रगण से 12 वर्ण होते हैं। 'जतो तु वंशस्थ मुदित नरो। (वृत्त रत्नाकार 343) इस छन्द का लाघवपूर्ण प्रयोग निम्नलिखित उक्तियों में देखा जा सकता है
मनुष्य का जीवन एक पुष्प है, प्रफुल्ल होता है यह प्रभाव में, परन्तु छाया लख-सांध्यकाल की, विकीर्ण हो के गिरता दिनान्त में। वंशस्थ का सर्वत्र समुचित व लाघव प्रयोग महाकाव्य में दृष्टिगत होता
जैसे- 'प्रभो! मुझे हो किसी भांति चाहते ?'
'यथैव निः श्रेयस चाहते सुधी।' 'प्रिये! मुझे हो किस भांति चाहती ?'
'यथैव साध्वी पद-पार्श्वनाथ के॥" (158176) यहाँ छन्द की रमणीयता, लाघवता के साथ भाषा की प्रश्नात्मक संवाद-शैली भी द्रष्टव्य है। ऐसी शैली से संवाद में प्रभाव व रोचकता पैदा होती है। इस छन्द में भाषा जकड़-सी जाती है, क्योंकि इसमें फैलाव बहुत कम होता है। फिर अनूप जी ने इसमें भाषा-सौंदर्य अक्षुण्ण रखा है। 'धनाक्षरी की भांति वंशस्थ प्रयोग में अनूप जी अद्वितीय हैं। नाना रसों के इस छन्द का प्रयोग सफलता से हुआ है। इस वृत्त करुण, शृंगार, शान्त तीनों प्रमुख रसों के अनुकूल है और दोनों महाकाव्यों में इन रसों के वर्णन के लिए पर्याप्त अवसर मिलता जाता है। + + + + कवि ने इस वृत्त के प्रयोग से (वर्धमान में 1922 छन्द वंशस्थ के) अपने को 'वंशस्थ सिद्धकवि' सिद्ध कर दिया है। किसी भी भाव
1. डा. वीणा शर्मा-आधुनिक हिन्दी महाकाव्य,पृ. 45. 2. वर्धमान,पृ. 306, सर्ग-10, 10185. 3. वही,पृ. 158, 176.