________________
421
आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव उरोज ज्यों कोक सुनाभि भौर-सी,
तरंगिता थी त्रिशला तरंगिणी।' उसी प्रकार त्रिशला कल्प-वल्लरी है।
सुपुष्यिता दन्त प्रभा प्रभाव से, नृपालिका पल्लविता सुपाणि से। सुकेशिनी सेचक-भंग-युथ से, अकल्प थी शोभित कल्प वल्लरी।।
कवि की अधिक ऊर्वर कल्पना शक्ति से कहीं-कहीं रूपक हास्यात्मक या ऊहात्मक भी बन जाते हैं। त्रिशला की अंगुली को महाभारत की कथा बना देने में जहाँ एक ओर अत्युक्ति प्रतीत होती है, वहाँ दूसरी ओर एक अंगुली के चिह्नों से महाभारत की कथा के भागों की साम्यता विचित्र भी लगती है, जैसे
नलोपमा, अक्षवती, स-ऊमिका, मनोहरा सुंदर पर्व-संकुला। नरेन्द्र जाया कर अंगुली लसी, कथा महाभारत के समान ही|60102 त्रिशला की मधुर वाणी सुनकर कोयल वन में रोती-रोती फिर रही है और वीणा धराशायी हो गई-दोनों का सौन्दर्य व गर्व चूर-चूर हो गया
सुनि सुघामंडित माधुरी घुरी अभी सुवाणी त्रिशला मुखाब्ज से, पिकी कुछ रोदन में रता हुई, प्रलम्ब भूमें परिवायिनी हुई बनी।।
यहाँ कवि ने त्रिशला की मधुर वाणी की प्रशंसा अप्रस्तुत अलंकार द्वारा सुंदर रूप से की है। राजा सब कुछ देने वाले माने जाते हैं लेकिन लोगों को यह देखकर निराशा होती थी कि उन्होंने कभी अरि को पीठ और पर-स्त्री को वक्षदान नहीं दिया। उसी प्रकार से सर्वज्ञ भी नहीं थे, क्योंकि उन्होंने अभ्यागत अशरण, अभागे-अनाथ को कभी कुछ नहीं देने का 'नकार' नहीं जाना,
परन्तु जो सर्वद सर्वदा उन्हें, विचारते थे वह यों निराश थे। न पीठ देखी अरि-वृन्द ने कभी, न वक्ष देखा परनारि ने तथा। तथेव सर्वज्ञ न भूमिपाल थे, न जानते थे इतना कदापि वे। नकार होती किस भांति की अहो, अनाथ को, आश्रित को, अभागे
को
'वर्धमान' के अलंकारों में कहीं नये और सुन्दर उपमान भी दिखाई पड़ते हैं, जैसे नूपुरों को सरोष, भूभंगिमा की उपमा देना
1. अनूप शर्मा-'वर्धमान' सर्ग-3, पृ॰ 81. 2. वही-सर्ग-1, पृ. 50-59. 3. अनूप शर्मा-सर्ग-1, पृ० 60-105. 4. अनूप शर्मा-'वर्धमान' सर्ग-1, पृ. 44-36-37.