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________________ 418 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य कि उसके हर एक कार्य में, सच्चाई कम है और नकल बाजी . ज्यादा है।' उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट विदित होता है कि-आधुनिक हिन्दी जैन काव्य की भाषा शैली में चाहे गहराई, कलात्मकता, तीव्रता, प्रतीक विधान आदि विशेषताएँ कम मात्रा में रही हैं, लेकिन सरलता, प्रवाह, सुबोधता एवं माधुर्य सर्वत्र पाया जाता है। पूरे काव्य साहित्य में प्रसाद गुण का महत्व दिखाई पड़ता है और यही काव्य रचयिताओं का प्रमुख उद्देश्य रहा है। सुगम व रोचक भाषा शैली के द्वारा ही अपने हृदय के भावों को व्यक्त करने की चेष्टा इन कवियों ने की है। भाषा-शैली के उपरांत भाव को तीव्र करने वाले तथा भाषा को चमकीली व अलंकृत करने वाले अलंकारों की महत्ता व हिन्दी जैन काव्य में इसके स्थान पर संक्षेप में विचार किया जायेगा। अलंकार : किसी भी काव्य को ललित स्वरूप प्रदान करने में अलंकारों का योगदान निर्विवाद है। भाषा में चमत्कार, शैली में सुंदरता व भावों में उत्कर्ष व स्पष्टता लाने के लिए अलंकार-योजना के बिना बाह्य-सौंदर्य सहज नहीं होता-फिर अलंकार अर्थमूलक हो या शब्दमूलक, संस्कृत साहित्य से प्रभावित हों या पाश्चात्य साहित्य से प्रभावित नूतन प्रकृति के हों। महाकाव्य के विशद् वर्णन व चरित्र-चित्रण की विशेषताएँ स्पष्ट करने में अलंकार अनेक रूप में सहायक होते हैं। काव्य की शोभा बढ़ाने का ही केवल कार्य नहीं करते, अपितु शिल्प व रचना सौन्दर्य की सूक्ष्मता अभिव्यक्त कर भावों की प्रेषणीयता बढ़ाने का कार्य भी अलंकार करते हैं। प्राचीन संस्कृत-काव्य शास्त्रकारों से लेकर आधुनिक पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों ने समीचीन व शिष्ट अलंकारों की उपयोगिता को एक कण्ठ से स्वीकार किया है। संस्कृत में तो आचार्यों का एक वर्ग ही ऐसा है, जो अलंकार को काव्य-धर्म मानते हैं। आचार्य दण्डी अलंकारों को काव्य धर्म समझ इनसे काव्य शोभित होना स्वीकारते हैं। (काव्य-शोभा करात् धर्मानलंकारान् प्रवक्षते-काव्यादर्श) आचार्य वामन भी प्रकारान्त से यही बात मानते हैं कि अलंकार सौन्दर्य का पर्याय होता है। (काव्यं ग्राह्यं अलंकारात्' तथा 'सौन्दर्य अलंकारः' काव्यालंकार सूत्र।) चन्द्रोलोककार जयदेव तो अलंकारविहीन काव्य को काव्य ही नहीं स्वीकारते। न केवल अलंकारवादियों ने बल्कि रसवादी आचार्यों ने भी रस के प्रतिपादन के लिए अलंकारों का 1. मुनि रूपचन्द जी-अन्धा चांद, पृ. 30.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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