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आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
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तब हाँ, तब बनपाल! शीघ्र ही मुझको चुन ले जाना, चढ़ा पार्श्व-अनुचर चरणों मे जीवन सफल बनाना।
कहीं-कहीं भाषा में मुहावरों के प्रयोग से जीवन्तता पैदा की गई है। जैसे-'वीरवाणी' काव्य में
स्वार्थों पर जय पावे, मिथ्या की माँ मारी जावे, सुख की घटा फिर थहरावे, ताप-कषाय पीठ दिखलाये, दोष-दलिनी! प्राणी-समूह को कर दे अब निर्दोष।
ऐसे ही नरेन्द्रकुमार जैन की स्तुति परक कविता 'आया तुम्हारे द्वार भगवन्' कविता में भी भाषा की स्वाभाविकता सराहनीय है
दो दिन की मेरी जिन्दगानी, दुनिया दुःख की निशानी, जब आ जाये कालचक्र तब, उठ जाये सब डेरा रे॥
कहीं-कहीं मुक्तक काव्य-रचना पर राजस्थानी, गुजराती भाषा में शब्दों का प्रभाव भी दृष्टिगत होता है। जैसे-राजस्थानी जैन मुनि नेमिचन्द्र के स्तुति-परक पद में पाया जाता है
पद्म प्रभु वासुपूज्य दोऊ राते वर्णे सोभे सोय। चन्द्र प्रभु ने सुवधिनाथ उज्ज्वल वर्णे जिन विख्यात॥1॥ मल्लिनाथ ने पार्श्वनाथ, नीले वर्णे दोऊ हाथ। मुनि सुव्रत ने नेमिनाथ, अंजन वर्णे दो साख्यात॥2॥ सोले कंचन वर्णा गात, चौबीस जिन प्रणमुं प्रभात। 'नेम' भणे पुनम परसाद, उदयापुर जिन किना याद॥3॥
मुनि रूपचंद के 'अन्धा चांद' संग्रह की कविताओं में भाषा का अनवरत प्रवाह, विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति तथा व्यंग्यात्मकता के साथ आधुनिक प्रतीक व व्यंगात्मक शैली का रूप प्राप्त होता है-जैसे
चुराई हुई रोशनी से रोशन, चांद की दर्द-भरी चाल पर, देखो तो सही ये सितारे कितने हंस रहे हैं।
अब तो ऐसा लग रहा है, कि जो बाहर से जितना अधिक चमकता है,
वह भीतर उतना ही अधिक कालापन लिए हुए है। इसी प्रकार कवि व्यंग्य में कहते हैं
पता नहीं मानव की बुद्धि को क्या हो गया है, 1. मुनि नेमिचन्द्र जी-'नेमवाणी' संग्रह, पृ. 16. 2. मुनि रूपचन्द जी-अन्धा चांद, पृ. 3.