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आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव
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विटपों ने सादर श्रद्धा, से शीश झुकाया हिलकर, सुमनों ने मोद जताया, सम्पूर्ण रूप से खिल कर।
विटपों द्वारा श्रद्धा से शीश झुकाने की क्रिया में एक जीवन्त बिम्ब उभर कर हमारे सामने आ जाता है।
समानता और असमानता पर गहरा व्यंग्य किया गया है। सरल भाषा में इतना तीखा व्यंग्य केवल सफल कवि ही कर सकता है। निम्नोक्त पंक्तियों में व्यंग्य, आक्रोश और तीखापन देखिए
निर्धन और धनी में, है नर्क-स्वर्ग की दूरी, गृह एक अभावों का ही, निधि भरी एक के पूरी। नर जो पशु मुण्ड चढ़ाने, देवी के पास शरण में कहते, यह शक्ति सहायक, इच्छित वरदान ग्रहण में।
डॉ. नेमिचन्द्र जैन के शब्दों में 'विराग' खण्ड काव्य की भाषा सरल, सुबोध और भावानुकूल व शैली रोचक, तर्कपूर्ण एवं ओजयुक्त है। कहीं-कहीं व्याकरण दोष भी रह गया है। जैसे-दूसरे सर्ग में 'निर्बल' के स्थान 'निबल' तथा त्रिशला के लिए 'जाना' है पुल्लिंग-प्रयोग शब्द को तोड़ने-मरोड़ने की वृत्ति कही जायेगी।
'विराग' काव्य की तरह अन्य खंड काव्य 'राजुल' की भाषा में भी हमें माधुर्य गुण पर्याप्त रूप से प्राप्त होता है। कवि बालचन्द्र जी ने भावों के अनुकूल आकर्षक भाषा शैली से इस काव्य को मंडित किया है। भाषा की मार्मिकता राजुलमती के इस कथन में देखिए
वे मेरे फिर मिले मुझे, खोजूंगी कण-कण में।
तुमने कब मुझको पहिचाना! देखा मुझको बाहर से ही, मेरे अन्तर को कब जाना।
नारी ऐसी भी क्या हीन हुई!
तन की कोमलता ही लेकर नर के सम्मुख दीन हुई। • 'राजुल' काव्य में राजुल की संपूर्ण मनोदशा के मार्मिक वर्णन के समय कवि ने योग्य भाषा शैली का प्रयोग किया है-राजुल की चाह, उमंग, ग्लानि, 1. डा० नेमिचन्द्र जैन : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन-द्वितीय भाग-पृ. 33.