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________________ 406 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य कहो कि क्या पाप धरित्रि में शुभे? असत्यता, क्रोध-कषाय आदि ही। नरेन्द्र वामे! फल धर्म का कहो। त्रिलोक-स्वामित्व जिनेन्द्र संपदा।' शृंगार एवं शान्त रस के वर्णन में कवि की भाषा माधुर्य-गुण-युक्त है; लेकिन सर्वत्र इस शैली का निर्वाह संस्कृत छंदों-वृत्तों के कारण नहीं हो पाया है। वीर-रस की गुंजायश नहीं होने से ओज शैली का तो प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता, लेकिन दीर्घ समास व कठिन शब्दावली के कारण भाषा में ओजस्विता यत्र-तत्र दिखाई पड़ती है। 'वर्धमान' के कवि ने विषय की असमर्थता की पूर्ति काल्पनिक वर्णनों, अलंकृत काव्यांशों, चमत्कार-उक्तियों तथा अध्ययन-प्रसून आध्यात्मिक निष्कर्षों के आधार पर की है। अनेक अप्रचलित संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग द्वारा पांडित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति को तुष्ट किया है। कवि की कल्पना-शक्ति प्रारंभ से ही अत्यधिक ऊर्वर रही है। वहाँ बहुत-से विवेचकों को इस हिन्दी जैन महाकाव्य की भाषा क्लिष्ट और दीर्घ समास-बहुला प्रतीत होती है, वहाँ कितनों के द्वारा उसकी गंभीर गौरवयुक्त भाषा-शैली की प्रशंसा भी हुई है। इसकी भाषा शैली की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए डा. पं० विश्वनाथ उपाध्याय लिखते हैं-शब्द-संधान की दृष्टि से 'वर्धमान' हरिऔध के 'प्रिय-प्रवास' से भी अधिक प्रौढ़ काव्य है। अशिथिलता इसकी विशेषता है। शब्द एक-दूसरे से कसे हुए हैं, एक हिल्लोलाकार में सर्वत्र बढ़ते हुए चलते हैं। उनमें एक अनवरत दिगन्त भेदी आवर्त उत्पन्न करने की शक्ति अवश्य है। इस दृष्टि से कवि के अद्भुत शब्द-संधान और मानसिक संयम पर आश्चर्य होता है। पर्यायवाची शब्दों पर कवि का असाधारण अधिकार दिखाई पड़ता है। लगता है, हिन्दी और संस्का का पूरा शब्द-कोश पहले ही कवि के मन में यथावत उपस्थित है। + + + अनूप शर्मा के इस काव्य में उनका 'शब्द-सम्राट' रूप सबसे अधिक मुखर है। 'वर्धमान' महाकाव्य की भाषा डा. बनवारीलाल शर्मा के विचारानुसार 'प्रिय-प्रवास' की-सी संस्कृत-बहुला शुद्ध खड़ी बोली है, पर उसमें सुदीर्घ समस्त पदावली का आधिक्य नहीं है।' इसकी भाषा के साथ-साथ शैली की सरलता-क्लिष्टता भी विचारणीय है। जहाँ एक ओर सरलता प्राप्त होती है, वहाँ दुरुहता के भी दर्शन होते हैं। 1. द्रष्टव्य-अनूप शर्मा-वर्धमान, पृ. 181, 33-34. 2. डा. रामचन्द्र तिवारी-अनूप शर्मा : ‘कृतियाँ और कला' के अन्तर्गत निबन्ध सुकवि अनूप की महान कृति 'वर्धमान', पृ. 146. 3. पं. विश्वनाथ उपाध्याय-वर्धमान और द्विवेदी युगीन काव्य परंपरा, पृ० 159. 4. डा. बनवारी लाल शर्मा-स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी प्रबंध काव्य, पृ० 62.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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