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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 405 तथैव सर्वज्ञ न भूमिपाल थे, न जानते थे इतना कदापि वे। नकार होती किस भांति की अहो! अनाथ को, आश्रित को, अभाग्य को।' कवि अनूप जी ने महाकाव्य में अपनी भावमयी कल्पना में अर्थ और मृदुता के अनेक सुमन खिलाये हैं, शब्दों की कल्पना में अर्थ और मृदुता का इतना सुष्ठु रूप दिया है कि सैद्धांतिक परिभाषाएँ और कल्पनाएँ काव्यमय हो गई है। स्वप्नों के संसार के लिए कवि कैसी भाव-प्रवण भाषा का प्रयोग करते हैं निशिथ के बालक स्वप्न नाम के, प्रबुद्ध होके त्रिशला-हृदयाब्ज में, मिलिन्द से गुंजन शील हो गये। उगा नहीं चन्द्र, सगूढ़ प्रेम है, न चांदनी केवल प्रेम-भावना। न रुक्ष है, उज्जवल प्रेम पात्र है, अतः हुआ स्नेह प्रचार विश्व में। 'आंसू' जैस दृग जल के लिए कवि की कल्पना व भाषा-माधुर्य देखिए वियोग की है यह मौन भारती, दृगम्बु धारा कहते जिसे सभी। असीम स्नेहाम्बुधि की प्रकाशिनी, समा सकी जो न सशब्द वक्ष में। मार्मिक तथा व्यवहारिक युक्तियों के कारण कहीं-कहीं तो 'वर्धमान' की भाषा अत्यन्त ग्राह्य हो पाई है-यथापुरन्धित स्वगीर्य प्रतीति प्रीति है। या मनुष्य का जीवन धूप-छांह सा। नितान्त अज्ञात प्रवृत्ति प्रेम की। ऐसे ही-दिनेश ही एक न तेजमान है, निसर्ग का प्रेम द्वितीय सूर्य है। ऐसे ही, सुंदर भाषा के कारण ही दार्शनिक संवाद अनुभूति-गम्य बन पड़े है, जिसका 'वीरायण' काव्य में सर्वथा अभाव है। 'वीरायण' की भाषा में सरलता अधिक है, साहित्यिकता कम, जबकि 'वर्धमान' में साहित्यिकता विशेष है, सरलता कम। भाषा में गांभीर्य तथा कल्पना वैभव जितना 'वर्धमान' की भाषा में पाया जाता है, मूलदास कृत 'वीरायण' महाकाव्य में प्रायः नहीं है। 'वर्धमान' की भाषा में यत्र-तत्र क्लिष्टता भी है, तथापि दार्शनिक विचारधारा में भाषा का प्रवाह ध्यानाकर्षक हैंकहो शुभे! ध्येय पदार्थ क्या ? महान कल्याणक जैन शास्त्र ही। कहो, कहो भूपर गेय वस्तु क्या ? जिनेन्द्र द्वारा परिगीत तत्त्व ही। 1. द्रष्टव्य-अनूप शर्मा-वर्धमान-सर्ग-1, पृ० 44, 36, 37.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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