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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य प्रयास किया है। यह पुस्तक इतिहास और जीवनी का भी काम दे सकती है।'' संक्षेप में यह संपूर्ण ग्रन्थ अपनी शैली, नवचेतना, संदेश, भाव-माधुर्य में बेजोड़ कहा जायेगा। गोयलीय जी को ऐसा संस्मरणात्मक ग्रन्थ तैयार करने के लिए हार्दिक अभिनन्दन, क्योंकि यह ग्रन्थ हिन्दी-जैन-साहित्य ही नहीं, बल्कि हिन्दी साहित्य को भी गौरव रूप प्रदान कहा जायेगा।
जीवनी, आत्मकथा एवं संस्मरण के अतिरिक्त विभिन्न विषयों के निबंधों के संकलन भी अभिनंदन-ग्रंथों के नाम से प्रकाशित हुए हैं। इनमें निम्न ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं
श्री प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, श्री वर्णी अभिनंदन ग्रंथ, श्री ब्र. पं० चन्दाबाई अभिनंदन ग्रंथ, श्री हुकुमचन्द अभिनंदन ग्रंथ, श्री आचार्य शांतिसागर श्रद्धांजलि ग्रंथ, 'श्रीयुत अगरचन्द्र एवं भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ' में विभिन्न विद्वानों एवं परिचितों के द्वारा लिखे गये संस्मरणों का संकलन किया गया है। अभिनंदन ग्रंथों के सर्जन से हिन्दी जैन साहित्य के साथ हिन्दी साहित्य का भी महती उपकार हुआ है, क्योंकि हिन्दी साहित्य में भी अभिनंदन ग्रंथों की दिशा में अभी बहुत कुछ करने को बाकी है, तब उसके भंडार भरने में ये ग्रन्थ सहायक बनते हैं। इन ग्रंथों के द्वारा अभिनन्दनीय व्यक्तियों को सम्मान देते हुए उनकी साहित्यिक, सामाजिक व धार्मिक सेवाओं की कद्र की जाती है तथा उनकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला जाता है।
इस प्रकार गद्य के विभिन्न रूपों को देखने से सरलता से महसूस किया जा सकता है कि आधुनिक हिन्दी जैन गद्य हिन्दी साहित्य की तरह विस्तृत एवं नूतन शैली की संश्लिष्टता से चमकता हुआ न हो, फिर भी उसका महत्त्व स्वीकार करना ही चाहिए। हिन्दी साहित्य के एक नये रूप का भण्डार भरने का कार्य इससे अवश्य हुआ है। गद्य के रूपों में उपन्यास, कहानी की कमी के प्रति अंगुली निर्देशन करते हुए कहा जा सकता है कि न केवल जैन लेखक, बल्कि हिन्दी साहित्य के लेखकों का भी इस ओर ध्यान आकृष्ट हो और वे अपनी कलम से जैन प्राचीन ग्रंथों से कथानक ग्रहण कर उपन्यास-कथा-साहित्य का सृजन कर हिन्दी-जैन साहित्य को गौरवान्वित करेंगे। आत्मकथा और संस्मरण का क्षेत्र अभी काफी खाली कहा जायेगा, जिसकी और प्रवृत्त होने की आवश्यकता महसूस की जाती है।
आज के वैज्ञानिक युग में मुद्रण कला की सुविधा के कारण बहुत से दार्शनिक साहित्यिक निबंध ग्रंथों का प्रकाशन होता रहता है लेकिन नये 1. जैन जागरण के अग्रदूत-अयोध्याप्रसाद गोयलीय, ये टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ, पृ. 11.