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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 385 जैन साहित्य व समाज तो उपकृत होगा ही, सभी पाठकों को रसात्मकता के साथ कुछ विशेष प्राप्त होने की अनुभूति अवश्य होती है। प्रेरणा, उत्साह, संकटों का हंसते हुए सामना करके निर्दिष्ट पथ पर अग्रसर होकर उद्देश्य के प्रति दृढ़ निश्चयी होने की प्रेरणा प्राप्त होती है। __ "आत्मकथा लेखक के अपने जीवन का सम्बंध वर्णन है। आत्म कथा के द्वारा अपने बीते हुए जीवन का सिंहावलोकन और एक व्यापक पृष्ठभूमि में अपने जीवन का महत्व दिखलाया जाना संभव है। + + + जीवन चरित्र आत्मकथा से इस अर्थ में भिन्न है कि किसी व्यक्ति द्वारा लिखी गई किसी अन्य व्यक्ति की जीवनी जीवन चरित्र है। और किसी व्यक्ति द्वारा लिखी गई स्वयं अपनी जीवनी आत्मकथा, आत्म-चरित या आत्म-चरित्र हिन्दी में आत्मकथा के अर्थ में प्रयुक्त प्रारंभिक शब्द है और तत्वत: आत्म कथा से भिन्न नहीं है। आत्म कथा का उद्देश्य आत्मांकन द्वारा आत्म परिष्कार एवं आत्मोन्नति करने की होती है। दूसरा उद्देश्य यह भी है कि लेखक के अनुभवों का लाभ अन्य लोग उठा सकें। आत्म-कथा-लेखक की रचना युग तथा समय के प्रमाण रूप में पढ़ी जानी चाहिए, क्योंकि इसमें ऐतिहासिक घटनाओं एवं आंदोलनों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वर्णन वास्तविक रूप से होता है। हिन्दी भाषा में सर्वप्रथम जैन कवि बनारसीदास की 'अर्द्ध कथानक' आत्मकथा प्रसिद्ध है और दूसरी डा. राजेन्द्र बाबू की। अभी तो थोड़ी बहुत आत्मकथाएं प्रकाशित हुई हैं, फिर भी इनकी संख्या अल्प ही कहीं जायेगी। गद्य की यह एक ऐसी विधा है, जिसमें कुछ अन्तर्भूत किया जाता है लेकिन जाहिर में व्यक्त करने में कठिनाई महसूस होती है। वृत्तियों, प्रवृत्तियों एवं कमजोरियों का निभीकता तथा खेलदिली से स्वीकारोक्ति सबके लिए संभव नहीं होता। फिर भी आजकल हिन्दी के लेखकों का ध्यान इस दिशा में थोड़ा-बहुत आकृष्ट हुआ है, जो आनंद की बात कही जायेगी। आत्मकथा की अल्पसंख्या के कारण पर प्रकाश डालते हुए डॉ. नेमिचन्द्र लिखते हैं कि-यही कारण है कि किसी भी साहित्य में आत्म कथाओं की संख्या और साहित्य की अपेक्षा कम होती है। प्रत्येक व्यक्ति में यह नैसर्गिक संकोच पाया जाता है कि वह अपने जीवन के पृष्ठ सर्व-साधारण के समक्ष खोलने में हिचकिचाता है, क्योंकि उन पृष्ठों के खुलने पर उसके समस्त जीवन के अच्छे या बुरे कार्य नग्न रूप धारण कर समस्त जनता के समक्ष उपस्थित हो जाते है और फिर होती है उनकी कटु आलोचना। यही कारण है कि संसार में बहुत कम विद्वान 1. हिन्दी साहित्य कोश, पृ. 28.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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