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आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
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देखी जाती है। नाभादास कृत 'भक्तमाल' तथा अन्य कुछ ग्रन्थों में जीवन सम्बंधी जो भी इतिवृत्त मिलते हैं, उनमें गुण दोष की मात्रा अधिक है। फलतः जीवनी लेखन का वास्तविक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमें प्राचीन साहित्य की अपेक्षा आधुनिक काल में पश्चिमी साहित्य से विशेष मिला। हिन्दी का जीवनी साहित्य नायक के जीवन तथ्यों के वैज्ञानिक विश्लेषण, सम्यक् निरूपण और मनोवैज्ञानिक अध्ययन की दिशा में गतिशील है। हिन्दी जैन साहित्य में साधु-मुनियों की जीवनी विशेष उपलब्ध होती है, जिनमें जीवन की वास्तविकता का निरूपण अच्छा किया गया है। साथ ही साहित्यिक शैली में जीवन के महत्वपूर्ण भाग को प्रस्फुटित किया गया है। जैन साहित्य में अपभ्रंश भाषा में गुरुओं की जीवनी या चरित लिखे गये हैं, जिनमें भक्ति भावना वश गुणों का कीर्तन विशेष देखा जाता है। आधुनिक काल में भी विशेषत: आचार्य या गुरुओं की जीवनी उनके अनुयायी या 'श्रावक' द्वारा लिखी गई है। आलोच्य काल में निम्नलिखित जीवनियाँ प्राप्त हो सकी हैं(1) जगद्गुरु श्री हरिविजय सूरी की जीवनी :
मुगल सम्राट अकबर के समय में जैन धर्म व शासन की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले विद्वान् लोकप्रिय जैनाचार्य की जीवनी श्री शशिभूषण शास्त्री ने भिन्न-भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के आधार पर से आलेखित की है। आत्म-साधना एवं श्रेय में तल्लीन आचार्य लोक-कल्याण तथा लोकोदय की उपेक्षा करते हैं, ऐसे आरोप को आचार्य जी ने अपने कार्यों द्वारा निर्धान्त कर दिया है।
ई. 1722 में लिखी गई इस जीवनी के चरित्र-नायक का जन्म सं. 1596 में कार्तिक शुक्ल द्विज को हुआ था और बचपन से ही संसार से विरक्ति आ जाने से दीक्षा अंगीकार कर समाज-कल्याण का कर्तव्य बजाने का निश्चय किया। प्राणीमात्र के प्रति दया व अनुराग होने से अपने संपर्क में आने वाले को प्रेमपूर्वक उपदेश द्वारा शांति व धीरज बंधाते हैं। जीवदया के वे प्रवर्तक-प्रचारक थे। गुणीजनों के प्रति विनम्री तथा अनुरागी थे। अतः उच्च स्थिति पर पहुँचने पर भी गांव-गांव घूमकर जीव दया तथा अहिंसा का सदुपदेश देकर लोगों को मानवता व करुणा का संदेश देते थे। सम्राट अकबर उनकी विद्वता एवं प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए थे और उनके उपदेश से ही अमुक तिथियों पर हिंसा बन्द रखने का हुकुम निकाला था। उन्होंने काफी ग्रन्थों का प्रणयन किया था
1. धर्म धर्मावलम्वी। 2. द्रष्टव्य-वील डयुरेट्-Our Oriental Heritage, p. 467.