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________________ 368 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य थोड़े-बहुत नवीन उद्धरणों के साथ लिखा, जिसमें थोड़ी-बहुत ऐतिहासिक त्रुटियों के रह जाने पर भी इसका महत्त्व है। आपने अन्य भी कई सामाजिक निबंध लिखे हैं। महात्मा भगवानदीन और सूरजभान वकील भी सफल सामाजिक निबंधकार हैं। भगवानदीन जी के 'स्वाध्याय' संकलन में मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक निबंध हैं, जिसकी शैली रोचक व तार्किक है। 'स्वाध्याय' निबंध संग्रह में आध्यात्मिकता की अपेक्षा सामाजिकता व मनोवैज्ञानिकता विशेष है। स्वाध्याय की महत्ता, प्रयत्न, दिशाएँ, अघोमन, आत्मिक चेतना, स्वाध्याय क्यों और क्या? आदि मनोवैज्ञानिक तत्वों पर विद्वतापूर्ण शैली एवं गहराई से चिन्तन किया है। प्रसिद्ध जैन विद्वान श्री दलसुखभाई मालवणीया जी इस ग्रन्थ पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं-महात्मा जी ने जैन शास्त्रों का स्वतंत्र अध्ययन किया है और उन पर अपनी मौलिक एवं सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में उनकी स्वतंत्र विचारधारा का दर्शन पाठकों को होगा। परंपरा के अनुसार यदि इस ग्रन्थ में जैन धर्म और दर्शन की व्याख्या या विवेचना नहीं मिलती है, तो यह नहीं समझना चाहिए कि शास्त्रों की भी नयी व्याख्या आज अत्यन्त आवश्यक हो गई है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। अतएव, पुरानी बातों का नवीनीकरण आवश्यक है। आशा है इस ग्रंथ का दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में विशेष स्वागत होगा।' ग्रन्थ के भिन्न-भिन्न अध्यायों में शरीर, मन, चेतना, भौतिकता, असत्य की बेटी कल्पना, भाववासी आदमी, देहवासी आदमी, कला और विज्ञान, गुणों की विशेषता, संस्कारादि भिन्न-भिन्न विविध विषयों पर जो लेख लिखे हैं, वे बाह्य रूप से विषय भेद से उदाहरण प्रतीत होंगे, लेकिन उन सबका केन्द्र बिन्दु है स्वाध्याय। स्वाध्याय की परिस्थितियाँ, कसौटी, स्वाध्यायी की शारीरिक-मानसिक शक्ति, कठिनाइयाँ आदि को अधिक स्पष्ट करने के लिए ही सभी निबंध लिखे गये हैं। अतएव, स्वाध्याय के प्रथम अध्याय के प्रथम परिच्छेद में ही लेखक ने स्वाध्याय का अर्थ, महत्व, व विशेषता का स्पष्टीकरण कर दिया है, जैसे-स्वाध्याय शब्द सीधा-सादा हैं। उसके समझने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए। न जाने क्यों, स्वाध्याय के नाम पर ऐसा रिवाज़ चल पड़ा है जिसका स्वाध्याय से कोई मेल नहीं। यह रिवाज़ है पुस्तकालयों, मंदिरों या उसी तरह की जगहों में जाकर ग्रन्थों को पढ़ना। किताब या ग्रन्थ का स्वाध्याय किसी तरह 'स्व' या 'अपना' नहीं हो सकता। वह हर तरह 'पर' यानी बेगाना ही रहेगा। + + + स्वाध्याय के माने साफ है, 'स्व' याने अपना ध्याय-अध्ययन
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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