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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 351 घटनाओं का अभाव है। नृत्य और संगीत का भी इसमें अभाव है। अभिनय सम्बंधी त्रुटियाँ बहुत कम पाई जाती हैं। कथानक भी सरल है, और दृश्य-परिवर्तन रंगमंचानुसार हुआ है। संगीत की बिल्कुल अनुपस्थिति ऐसे धार्मिक नाटक को नीरस बना देता है। कथोपकथन नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमतावाले हैं। काव्य और अकाव्य दोनों प्रकार के कथोपकथन हैं, जो कथा की गति को आगे बढ़ाने में एवं चरित्रों की विशेषता पर प्रकाश डालने में समर्थ है। रानी त्रिशला और सुचेता का निम्नलिखित संवाद कथा के प्रवाह को तीव्र बनाने के साथ वर्धमान के गुणों पर भी प्रकाश डालता है 'त्रिशला-सुचेता! मै तालाब में सबसे आगे तैरते हुए दोनों हंसों को देखकर अनुभव कर रही हूँ, जैसे मेरे दोनों पुत्र नंदिबर्द्धन और वर्द्धमान जलक्रीड़ा कर रहे हैं। दोनों में जो सबसे आगे तैर रहा है वह-सुचेता-'वह कुमार नंदिवर्द्धन है महारानी।' त्रिशला-'नहीं सुचेता, वह वर्द्धमान है। नंदिवर्धन में इतनी क्षिप्रता कहाँ ? देख, देख किस फुर्ती से कमल की परिक्रमा कर रहा है शरारती कहीं का।' फिर भी कथोपकथनों के द्वारा पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति को व्यक्त करने की नाटककार ने कोशिश नहीं की है। यदि वे चाहते तो माता-पिता की मृत्यु, तपस्या, साधना, आदि के अवसरों पर महावीर के स्वाभाविक अन्तर्द्वन्द्व का आयोजन-निरूपण-कर सकते थे। वर्धमान के अतिरिक्त अन्य मुख्य पात्रों का-नन्दिवर्द्धन, यशोदा, त्रिशला, प्रियदर्शना आदि का-वैयक्तिक विकास न दिखलाकर उनके चरित्रों को गौण बना दिया है। नाटक के लिए आवश्यक कार्यावस्था और अर्थ प्रकृतियों का भी संपूर्ण निर्वाह नहीं हो पाया है। फिर भी शान्त रस की प्रभावक निष्पत्ति तथा पूर्ण अभिनेयात्मकता के कारण नाटक सुंदर बन पड़ा है। 'रस-परिपाक की दृष्टि से यह रचना सफल है। न यह सुखान्त है, और न दुखान्त ही। महावीर के निर्वाण-लाभ के समय शांत रस का सागर उमड़ने लगता है। अहिंसा मानव के अन्तस् का प्रक्षालन कर उसे भगवान बना देती है। यही इस नाटक का संदेश है। वर्तमान की समस्त बुराइयाँ इस अहिंसा के पालन करने से ही दूर की जा सकती है।' स्व. भगवत्स्वरूप जैन ने भी धार्मिक नाटकों की रचना की है। नाटकों में आधुनिक भाषा शैली एवं रंगमंचीय निर्देशन का पूरा वातावरण बना रहता है। अभिनेय योग्यता इनके नाटकों की विशेषता है। 'गरीब' उनका करुण रस प्रधान सामाजिक नाटक है, जिसमें समाज की विषमता, पूँजीपति की शोषणप्रियता, 1. डा. नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ. 120.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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