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आधुनिक हिन्दी - जैन- गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
दिन तक व्रत उपासना करके राजा श्रीपाल व मैनासुन्दरी की कथा याद करके उनकी दृढ़ता, शील, धर्म परायणता, न्याय वृत्ति को श्रद्धांजलि दी जाती है। जैन दर्शन में कर्म के महत्व को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि आदमी अपने कर्मों के अनुकूल ही सुख-दुःख प्राप्त करता है। शीलव्रत एवं शुद्ध आचरण के द्वारा सुख प्राप्त करता है, तो बुरे कर्मों के कारण दुःख, कष्ट सहन करने पड़ते हैं। प्राचीन रोचक कथावस्तु को ग्रहण कर इसमें नाटककार ने इस सनातन सत्य की अभिव्यक्ति अपने पात्रों से करवाई है । मैनासुंदरी अपने कर्मों को पिता के राज- वैभव की तुलना में विशेष महत्व देती है। इसी वजह से उज्जैन नगरी के राजा पहुपाल गुस्से में आकर लाड़ली बेटी का कुष्ठ रोगी श्रीपाल के साथ व्याह कर देते हैं। लेकिन मैना अपने कर्मों के फल में अविचल विश्वास रखती हुई व्रत - धर्म एवं सेवा सुश्रुषा से पति और उनके 500 कुष्ठ रोगी साथियों का रोग मिटाती है। अनेक कष्टों को धैर्यपूर्वक सहने के बाद अंत में वह सुख-सौभाग्य को प्राप्त करती है। श्रीपाल राजा पुनः राजगद्दी पर प्रतिष्ठित होते हैं और वह पटरानी बनकर सुख-वैभव भोगती है। तकदीर बड़ी चीज होने के साथ निःस्वार्थ पुरुषार्थ का सच्चा महत्त्व मैना का चरित्र व्यक्त करता है। इस नाटक का अभिनय किया जा सकता है, लेकिन कलातत्व, साहित्यिकता इसमें कम मात्रा में है। वातावरण संवाद की गरिमा, लघुता - तीव्रता, चरित्रों का मार्मिक अप्रत्यक्ष रूप से चित्रण आदि का नाटक में होना आवश्यक है, इन सबकी अनुपस्थिति इस नाटक में वर्तमान है। फिर भी रोचक कथावस्तु तथा अभिनेयता का गुण विद्यमान है। नेमिचन्द्र जी इस नाटक के सम्बंध में लिखते हैं- 'मैनासुंदरी नाटक का अभिनय किया जा सकता है, पर उसमें कला नहीं है। व्यर्थ का अनुप्रास मिलाने के लिए भाषा को कृत्रिम बनाया गया है। शैली भी बोझिल है। साहित्यिकता का अभाव है।" 'श्रीपाल नाटक' में मैनासुंदरी की अपेक्षा अधिक नाट्य तत्त्व पाये जाते हैं। इसके कथोपकथन भी प्रभावोत्पादक हैं तथा गद्य-पद्य दोनों में लक्ष्य की मधुरता और क्रमबद्धता है। अभिनय की दृष्टि से भी वह बहुत अंशों में सफल है। उर्दू शब्दों की भरमार होने पर भी अच्छा नाटक है।
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वर्द्धमान महावीर :
ब्रजकिशोर नारायण ने इस नाटक की रचना कर भगवान महावीर के आदर्श जीवन को अंकित किया है तथा महावीर का सत्य, अहिंसा का संदेश जन-सामान्य में प्रसारित करने के उद्देश्य से इस अभिनयात्मक नाटक की रचना गई है।
To नेमिचन्द्र जी : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 115.
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