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________________ 348 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य राजा सत्यंधर का केवल बेफिक्र होकर मौज मजा और ‘ऐशोआराम के लिए राजगद्दी व राजकाल किसी सुयोग्य व्यक्ति के हाथ में न सौंपकर एक अनपढ़, नीच लकड़हारे के हाथ में सौंपकर निश्चित हो जाना बुद्धि को ग्राह्य नहीं हो पाता। ठीक है कि एक बार लकड़हारे ने वेश्या पद्मावती के घर जाकर भी रंगरेलियों के बीच में से व्रत-नियम की याद आ जाने से तुरन्त उठकर चले जाने की हठता बताई थी और इससे राजा प्रभावित भी हुआ था। लेकिन इसी वजह से उसे राजकाज सौंप देना कहां की अक्कल है? केवल व्रत-नियम की दृढ़ता से ही वह विश्वासी एवं राजकाज में कुशल-चतुर होगा ऐसा कैसे स्वीकार्य-संभव हो सकता है? मंत्री धर्मदत्त और महारानी विजयासुन्दरी ने काफी समझाया-बुझाया तथा भविष्य का सोचकर ही कार्य करने को कहा, लेकिन राजा अपने निश्चय में दृढ़ था। अतः लकड़हारे को राज्य की बागडोर सौंपकर वे स्वयं निश्चित बन गये। राजा मंत्री वसुदत्त की शंका का अपने तर्क से समाधान करते हुए कहते हैं- वज़ीर साहब, आप घबराइये मत, ऐसा नहीं हो सकता कि काष्टांगार हमसे कोई दगाबाजी करे या किसी किस्म की जालसाजी करे। राज की बागडोर तो हमारे हाथों में रहेगी, उसको तो सिर्फ अपने ऐजन्ट के तौर पर मुकर्रर किया जा सकता है।' राजा को अपनी इस जल्दबाजी एवं अविवेक का फल भी तुरन्त मिलता है। काष्टांगार ने राजा का कत्ल करवा दिया और खुद राज्य हड़प लिया। साथ ही वह सगर्भा रानी को भी मार डालना चाहता था, ताकि आने वाली संतान राजगद्दी वापस लेने की चेष्टा न करे, रानी व सन्तान न रहने से भविष्य का कोई खतरा न रहे। लेकिन दम तोड़ते हुए राजा ने रानी को विमान से भाग जाने का आदेश दिया। रानी कैकेय यंत्र में बैठकर भाग छूटती है एवं पुत्र को जन्म देकर पालती-पोसती हुई अनेक प्रयत्नों के बाद पुनः राजगद्दी प्राप्त कर पुत्र को स्थापित करती है। उस समय देवियाँ आनंद-मंगल के गीत गाती हैं। इस गीत में गांधी जी का नामोच्चारण देशकाल व वातावरण की दृष्टि से अनुचित व देशकाल-दोष कहा जायेगा, लेकिन देश भक्ति के प्रवाह में नाटककार खींचते हुए ऐसा कर बैठे हैं। इस प्रकार शील एवं व्रत धर्म की महत्ता प्रदर्शित करता हुआ यह नाटक रंगमंचीय दृष्टिकोण से एक-दो दृश्यों को दूर कर अवश्य अभिनयात्मक कहा जायेगा। सती मैना सुंदरी नाटक : जैन ग्रंथों में सती मैना सुन्दरी एवं राजा श्रीपाल का रास बहुत ही लोकप्रिय और श्रद्धापात्र माना गया है। चैत एवं आश्विन के शुक्ल पक्ष में नव
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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