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________________ 328 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य प्रभु आदिनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठापित की थी। उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए समग्र भारत से चतुर्विध संघ उपस्थित हुआ था और उन्होंने वेदी राष्ट्रीय सम्राट खारवेल और महारानी राजदुलारी की धर्म परायणता, वीरता व प्रजा-वत्सलता को श्रद्धांजली देने के लिए पत्थरों में लेख कुतरवाये, जो आज भी उड़िया के उदयगिरि-खण्डगिरि पर्वत की हाथी गुफा में मौजूद है। (4) वीर चामुण्डराय : __चामुण्डराय दक्षिण के कुडुणिवर्म रायमल जी महाराज के प्रधान अमात्य थे, जो वीर बाहुबली थे। श्रावक होने के नाते उनकी वृद्धा माता को पोदनपुर स्थित बाहुबलि की मूर्ति के दर्शन की उत्कट अभिलाषा होने पर चामुण्डराय ने दक्षिण से उत्तर की ओर संघ निकाला और माता के साथ हजारों स्त्री-पुरुषों को सम्मान व प्यार से यात्रा करवाई। वे जितने उच्च कोटि के रणवीर थे, उतने ही महान् धर्मात्मा सज्जन थे। वीरता के अनेक बिरुद को अलंकृत करते हुए, महोत्कृष्ट वीरवृत्ति रखने पर भी जन्म से ही वे दृढ़ धर्म परायण एवं भावुक थे। जैन धर्म की अहिंसा गृहस्थ की वीरता के लिए कोई रुकावट नहीं पैदा करती, यह हम चामुण्डराय के दृष्टान्त से समझ सकते हैं। उन्होंने श्रवण बेलगोल के पर्वत पर ही शासन-देव की इच्छा से बाहुबली जी की भव्य प्रतिभा को सुंदर जिनालय के मध्य स्थापित किया। (5) चारित्र्यवीर मारसिंह : मारसिंह क्षत्रिय होने पर भी जैन धर्मी था। क्योंकि प्रायः सभी तीर्थंकर क्षत्रिय होने से उनके वंशज भी जैन धर्म के प्रति आसक्ति रखते थे। युद्ध में महाराज गंगराज धर्म प्रेमी सेनापति मारसिंह के रण कौशल का बखान करते थकते न थे। उन्हीं के साथ प्रधान अमात्य वीर चामुण्डराय भी थे। उन्होंने पिछली अवस्था में श्री अजित सेनाचार्य के पास दीक्षा अंगीकार पर संलेखना व्रत लेकर समाधि-मरण प्राप्त किया था। (6) जिनधर्म रत्न गंगराज : प्रारंभ में वे महाराज विष्णुवर्धान के महा सेनापति थे। महाराज विष्णुवर्धन प्रारंभ में जैन-मतावलम्बी थे, लेकिन बाद में तांत्रिकों के टोने-टोटके में पड़ गये थे। लेकिन महासेनापति गंगराज निर्भीक व धर्म प्रेमी थे, जिन शासन देव की कृपा से अपने राज्य में जिन धर्म ध्वजा लहरा सके। उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी भी जैन धर्म में अटूट श्रद्धा रखती थी और अपने पति को भी जैन धर्म के प्रति अनुरागी बनाये रखती थी। शुभचन्द्राचार्य की निश्रा में जैन मंदिर में बड़ा आनंदोत्सव हो रहा था, और वहीं महाराज को भी जैन धर्म की महत्ता प्रतीत
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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