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________________ 306 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य विद्युच्चर हस्तिनापुर के राजा संबर का श्रेष्ठ पुत्र था। कुमार ने यथायोग्य शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त कुशल चोर बनने का निश्चय किया। चोर-विद्या में पारंगतता प्राप्त करने के उपरान्त ममता व मोह बाधक न बने, इसलिए सर्वप्रथम अपने पिता के यहाँ चोरी करने का निश्चय किया। क्योंकि (charity begins at home) की नीति के मुताबिक पिता का रत्नकोष ही प्रथम लक्ष्य के रूप में उसने पंसद किया। कुशल चोर की तरह भण्डार से एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ चुराई-जो परिमाण, साहसिकता एवं कौशल्य में बड़ी चोरी कही जायेगी। आज तक सुरक्षित राजकोष में से राजपुत्र के द्वारा ही खजाना चुराया गया और महीनों परिश्रम करने पर भी चोर का पता नहीं था। चोर को खोज निकालने में राज्य व्यवस्था को असफल देख विद्युच्चर ने स्वयं ही चोरी की बात अपने पिता से जाहिर की। पिता को विश्वास न हुआ लेकिन कुमार ने चोरी का विश्वास दिलाया और अपना दृढ़ निश्चय भी जाहिर किया। पिता को अपार वेदना हुई और आँखों से अश्रु बहने लगे। कुमार अपने पेशे में निपुणता प्राप्त करने लगा, उसका आतंक चारों ओर फैल गया। वह डाकुओं के दल का मुखिया था। वह चोरी-डकैती अवश्य करता था, लेकिन निरर्थक किसी का प्राण लेना उसे इष्ट न था। कुछ समय के उपरान्त वह राजगृही नगरी में प्रसिद्ध वेश्या तिलका के यहाँ गया। वहाँ चारों ओर जम्बूकुमार स्वामी के स्वागत की तैयारी देखकर वह भी राजा श्रेणिक के साथ उनके दर्शन के लिए पहुँचा। जम्बूकुमार की मधुर वाणी में धर्मदेशना सुनकर उसे अपने चोरी के धंधे से नफरत हो गई और परिग्रहों को ही संसार के समस्त दु:खों का कारण जान संसार से विरक्ति आ गई और जैन दीक्षा अंगीकार करके आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हुआ। कहानी कला की दृष्टि से कथा पूर्ण सफल है और तीव्र, वेधक कथोपकथन इस कहानी के प्राण कहे जायेंगे, जो नीचे के दृष्टान्त पर से जाना जा सकता है। 'पिता जी! हेयोपदेय हो तो भी आपको कर्त्तव्य और अपने मार्ग में उस दृष्टि से कुछ अन्तर नहीं जान पड़ता। आपको क्या इतनी एकान्त निश्चिन्तता, इतना विपुल सुख, संपत्ति, सम्मान और अधिकार, ऐश्वर्य का इतना ढेर क्या दूसरे के भाग को बिना दिये बन सकता है? आप क्या समझते हैं, आप कुछ दूसरे का अपहरण नहीं करते? आपका 'राजपन' क्या और सबके 'प्रजापन' पर ही स्थापित नहीं है? आपकी प्रभुता औरों की गुलामी पर ही नहीं खड़ी? आपकी संपन्नता औरों की गरीबी पर, सुख-दुःख पर, आपका विलास उनकी
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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