________________
- गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु
आधुनिक हिन्दी - जैन
299
की वीरता देखकर जनक अत्यन्त प्रसन्न हुए और सीता के योग्य वर समझ उन्हीं के साथ विवाह करने का निश्चय किया ।
जब नारद जी ने सीता के रूप की प्रशंसा सुनी तो वे मिथिला गए और आतुरता में ही दरबार में न जाकर अन्तःपुर में गए। सीता अपने कमरे में अकेली बैठी थी, वहाँ नारद जी को एकाएक पाकर और उनके अद्भुत रूप को देखकर डर के मारे चिल्लाने लगी। महल के अनुचरों ने नारद की पिटाई की। अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए सीता का सुन्दर चित्र खींच कर चन्द्र गति विद्याघर के लड़के भामण्डल को भेंट किया। चित्र देखते ही मोहित हो गया। बस, फिर तो कामज्वर के कारण खाना-पीना सब छोड़ दिया। पुत्र की ऐसी हालत से चिंतित विद्याधर ने नारद को बुलाकर चित्रांकित कन्या का पता जानकर अपनी विद्या के बल पर जनक को निद्रावस्था में ही अपने यहाँ ले आया । जनक के जाग्रत होने पर उसकी पुत्री सीता की शादी अपने पुत्र से करने के लिए कहा, लेकिन जनक ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। तब अन्त में विद्याधर ने 'वज्रावर्त' औरे अर्णवावर्त' नामक दो धनुष दिये और कहा कि सीता का स्वयंबर रचकर जो इन दोनों धनुष को तोड़ दे, उसी के साथ सीता का विवाह होगा। जनक ने उसकी शर्त मंजूर रख ली और मिथिला आकर सीता का स्वयंबर रचाया, जिसमें राम ने इन दोनों धनुषों को तोड़कर सीता के हाथ से वरमाला ग्रहण की।
विवाह के उपरान्त थोड़े ही दिनों में कैकेयी के वरदान माँगने पर पिता के वचनों का पालन करने के लिए राम-सीता का वन प्रयाण होता है। फिर कथा में विशेष परिवर्तन नहीं किया गया है। वन में अनेक कारण-कलापों के मिलने पर सीता का हरण हो जाता है। लंका में सीता को अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं। हनूमान की सहायता से सीता का समाचार प्राप्त कर राम सुग्रीव की मदद से लंका पर आक्रमण करते हैं। लंका पर विजय प्राप्त कर सीता को लेकर अयोध्या 14 वर्ष के बाद पुनः आगमन करते हैं। अयोध्या में थोड़े समय आनंन्द-द- उल्लास के पश्चात सीता पर मिथ्या दोषरोपण होने पर गर्भवती सीता का राम परित्याग करते हैं। और जंगल में दोहद पूरा कराने के बहाने निर्वासित कर दी जाती है। यहाँ सीता लवण और अंकुशल को जन्म देती हैं, तब पिता-पुत्र का मिलन होता है। परस्पर परिचय होता है और अयोध्या में राम सभी को ले जाते हैं। वहाँ सीता के शील से अग्नि पानी बन जाता है और सीता संसार की स्वार्थ परकता देखकर विरक्त होकर जैन दीक्षा ग्रहण करती हैं। तपस्या करने के पश्चात वह स्वर्ग पाती हैं।