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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कथोपकथन के द्वारा कथा की धारा क्षिप्र गति से आगे बड़ती है। लेखक ने संक्षिप्त और लंबे दोनों प्रकार के कथोपकथनों का प्रयोग किया है। प्रारंभ में पवनंजय और प्रहस्त के लम्बे कथोपकथन हैं, लेकिन आगे चलकर संवादों में संक्षिप्तता का पूरा ध्यान रखा गया है।
कथोपकथन के द्वारा लेखक ने दूसरा भी लाक्षणिक कार्य किया है, वह है चरित्रों की विशेषता पर प्रकाश डालने का। पवनंजय और प्रहस्त के संवाद, अंजना-वसन्तमाला के वार्तालाप से हम उनकी विशेषता जान सकते हैं। पवनंजय के प्रति प्रहस्त का निम्नलिखित उद्बोधन पवनंजय की स्वभावगत विशेषता व्यक्त करता है
'तो जाओ पवनंजय, तुम्हारा मार्ग मेरी बुद्धि की पहुँच के बाहर है। पर एक बात मेरी भी याद रखना। तुम स्त्री से भागकर जा रहे हो। तुम अपने ही आपसे पराभूत होकर आत्मप्रतारण कर रहे हो। घायल के प्रलाप से अधिक तुम्हारे इस दर्शन का कोई मूल्य नहीं। यह दुर्बल की आत्म-वंचना है, विजेता का मुक्ति-मार्ग नहीं है।'
कथोपकथन की तरह शैली भी दो प्रकार की प्रयुक्त की है-सरल और बोझिल। अंजना-पवनंजय के मिलन पूर्व की शैली अत्यन्त भारी हैं। लम्बे-लम्बे कथन, विस्तृत वर्णनों की भरमार, अत्यधिक संस्कृत-निष्ठ-भाषा-जो शब्दाडंबर युक्त प्रतीत होती है-से कथानक गद्य-काव्य-सा दुष्कर भी हो जाता है, जिससे पाठक भारीपन महसूस करता है, लेकिन मिलन के बाद की शैली सरल व प्रवाह युक्त है। भावों की अभिव्यक्ति स्पष्ट और आकर्षक है। संवाद भी छोटे-छोटे व प्रासादिक हैं। संस्कृत के शब्दों के साथ प्रचलित विदेशी शब्दों के व्यवहार से भाषा में प्रवाह, प्रभाव व रोचकता पैदा होती है। 'मुक्तिदूत' की भाषा प्रसाद की भाषा के समान सरस, प्रांजल और प्रवाहयुक्त है। हिन्दी उपन्यासों में प्रसाद के पश्चात् इस प्रकार की भाषा और शैली कम उपन्यासों में मिलेगी। वस्तुतः वीरेन्द्र जी का 'मुक्तिदूत' भाषा सौष्ठव के क्षेत्र में एक नमूना है। उनके बाद के जैन उपन्यासों की भाषा भी ऐसी अद्भुत, रोमांचक और प्रभावोत्पादक है। उपन्यासों को एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद छोड़ने का दिल नहीं होता। उद्देश्य :
___ 'मुक्तिदूत' उपन्यास हिन्दी-जैन साहित्य की सर्वोत्कृष्ट रचना कही जायेगी, जिसमें जीवन की मानवीय, मनोवैज्ञानिक, व आध्यात्मिक व्याख्या मिल 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन, पृ० 75.