SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य एवं अंजना की साज-सज्जा के वर्णन में लेखक ने रीतिकालीन शैली का अनुसरण किया है यदि यह वर्णन संक्षिप्त होता तो उपन्यास के गठन में और निखार आ पाता। इन गिने-चुने प्रसंगों के अतिरिक्त अन्य वर्णन संक्षिप्त, रमणीय और प्रभावोत्पादक है। इसी से पूरे उपन्यास में मधुरता, कोमलता और नवीनता आ पाई है। कथा वस्तु में सुन्दर रसप्रद वर्णन हमें संसार की उलझनों से दूर हटाकर मधुर कोमल कल्पना की दुनिया में ले जाता है। इस उपन्यास के लेखक ने स्वयं 'रोमांटिक उपन्यास' की संज्ञा से अभिहित किया है, जो सर्वथा समुचित है। क्योंकि पवनकुमार और अंजना की पौराणिक प्रेम-विरह-कथा को उन्होंने आधुनिक युग के परिवेश में उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक कला से सजाया-संवारा है। अंजना-पवन की पौराणिक प्रेमकथा की आधुनिक भूमिका पर ही रचना होने से आख्यान, कथा या उपन्यास शब्दों की अपेक्षा लेखक को अंग्रेजी साहित्य का 'रोमेण्टिक' शब्द विशेष प्रतीति कर लगा है। पौराणिक कथा होने पर भी लेखक ने पौराणिक परिवेश की एक सीमा बांध ली है और उसके बाद वातावरण की सजीवता चारों ओर अक्षुण्ण रखने के लिए कल्पना की डोर छोड़ दी है। कथा एक नि:सीम अनंत आकाश की तरह 'मुक्तिदूत' में फैल गई है, जिनमें पात्रों और वर्णनों को तैरने का पूरा मौका मिल गया है। विस्तार मिलने से कथावस्तु में सजीवता, कल्पना-सौंदर्य और गहराई भी आ सकी हैं। (वर्णन भी ऐसे अनुपम सुचारु, सजीव कि हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के प्रसिद्ध उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' के वर्णनों का सौंदर्य बरबस याद आ जाता है। वैसे दोनों की विषयवस्तु में काफी भिन्नता है, लेकिन प्रभावोत्पादकता में समानता है।) पौराणिक कथा होने की वजह से यदि भौगोलिक ऐतिहासिक सत्य की उपेक्षा हो गई हो तो क्षम्य होनी चाहिए, क्योंकि 'मुक्ति दूत' उपन्यास है, भूगोल या इतिहास का ग्रन्थ नहीं है। _ 'मुक्ति दूत' की कथा वैसे अन्य पौराणिक कथाओं की तरह सौन्दर्य-प्रेम, परिणय-कलह, वियोग, संयोग की घटनाओं और वर्णनों से ओत-प्रोत है, जिससे पूर्णतः प्रणय कथा का स्वरूप सामने आता हैं पर जैसा कि 'ज्ञानपीठ' के विद्वान मंत्री श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इस उपन्यास के 'आमुख' में उचित ही स्पष्ट कर दिया है कि-'मुक्तिदूत' की मोहक कथा, सरस रचना, अनुपम शब्द-सौंदर्य और कवित्व से परे जाने लायक कुछ और ही हैं, और वह जो पुस्तक की इस प्रत्येक विशेषता में व्याप्त होकर भी माला के अंतिम मनकों की तरह सर्वोपरी हृदय से, आँख से, माथे से लगाने लायक है। पवनंजय के अहम्,
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy