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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कहीं-कहीं प्रकृति व पशु-पक्षियों की केलिक्रीड़ा का सुरम्य वर्णन स्वतंत्र रूप से भी किया गया है, जैसे समस्त पशु-पक्षी प्रसन्न चित्त दिखलाई देते है। सूखे पड़े हुए मेंढकों के शरीर में जीव आ गया है, वे इधर-उधर उछलते हुए मद को मात कर रहे हैं। सारस, हंस, मयूर आदि पक्षी चैन से क्रीड़ा कर रहे हैं। पानी के बहुत ही समीप बकगणों का ध्यान लग रहा है। एक साथ चलते हुए एक साथ मधुर शब्द करते हुए और एक साथ उड़ते हुए स्नहमय सारस के सरस जोड़ो को देखकर भूपसिंह के हृदय में शीघ्र ही प्राप्त होने वाले दाम्पत्य प्रेम की मीठी-मीठी कल्पनायें उठने लगीं। कोकिल के कोमल आलाप से चित्त उत्कंठित होने लगा और मयूरों के आनन्द-नृत्य से मुख पर स्वेद झलकने लगा। प्राकृतिक चित्रणों के द्वारा भावों को साकार बनाने की कहीं-कहीं अद्भुत चेष्टा की गई है। प्रकृति के चित्रमय वर्णनों में लेखक ने आलंकारिक शैली का सफल प्रयोग किया है।
लेखक ने इस उपन्यास में आध्यात्मिक व सांसारिक प्रेम के स्वरूप का मार्मिक निरूपण कर उनकी महिमा अंकित की है। लेखक इसकी विशिष्टता निरूपित करते हुए लिखते हैं-यह समस्त चेतनात्मक जगत् इसी प्रेम का फल है। प्रेम न होता तो संसार भी नहीं होता। जो प्रेम की उपासना नहीं करता, वह मानव जन्म का तिरस्कार करता है। प्रेम की पूजा करना प्राणिमात्र का पवित्र पुण्य कर्म है। प्रेम से पाप का सम्बंध नहीं है। प्रेम में द्वित्व नहीं है। प्रेम के समदृष्टि राज्य में 'निज' और 'पर' का भेद नहीं है। जो प्रेम का उपासक है, वह सच्चा सेवक है, वह परत्व बुद्धि को सर्वथा छोड़कर एकत्व के एक प्राणत्व के आनन्द राज्य में विहार करता हुआ स्वर्ग सुख का परिहास करता हैं"' लेकिन प्रेम की ऐसी उदात्त विचारधारा की अभिव्यक्ति कामुक उदयसिंह के द्वारा सुशीला को अनुकूल बनाने के लिए भेजी गई दूती के मुँह असंगत और हास्यास्पद-सी लगती हैं।
जैन-दर्शन की मीमांसा पूरे उपन्यास में यत्र-तत्र सर्वत्र देखने को मिलती है। लेकिन कथा के प्रवाह में इतनी घुल-मिल गई है। कि दार्शनिक चर्चा कहीं किसी प्रकार की रुकावट नहीं डालती। जैन धर्म की उच्चता, महत्त्व, दिव्यता व आवश्यकता की वर्चा सर्वत्र बिखरी पड़ी है। कहीं-कहीं जैन दर्शन के प्रमुख सात तत्त्वों जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष और कर्मावरण, लोकस्वरूप, द्रव्यस्वरूप व विभावालक्षण आदि की भेदोपभेदों के साथ सूक्ष्म चर्चा बीच-बीच में सामान्य जनता के लिए बोलचाल की रसात्मक भाषा शैली
1. सुशीला, पृ० 130.