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________________ विषय-प्रवेश के समय वैचारिक क्रान्ति के अनन्तर श्रमण-संस्कृति का दृढ विकास संभवलहुआ। भारत के तत्कालीन इतिहास में इसे धार्मिक जीवन का संक्रांतिकाल या बुद्धिवाद का युग भी कहा जा सकता है। जनता भी महावीर की सरल, सौम्य आकृति, अहिंसात्मक व्यवहार व विचारधारा तथा मानव-स्वतंत्रता को महत्व देनेवाली सात्विक उपदेश-पद्धति से प्रभावित होने लगी थी। श्री सी० जे० शाह ने अपनी 'उत्तर भारत में जैन धर्म' नामक पुस्तक में स्पष्ट रूप से लिखा है कि-'हमें साधु दिल से स्वीकार कर लेना चाहिए कि महावीर के उद्देश्य उच्च और पवित्र थे और मनुष्य जाति और अन्य सर्व जीवात्मा की समानता का संदेश भारत के यज्ञ-यागादि से त्रस्त व जाति-भेदों से ऊबे हुए लोगों के लिए उदार व महान आशीर्वाद के समान थे। जाति भेद के प्रखर विरोध के साथ समानता और समताभाव का तत्कालीन श्रमण धर्म में महत्व था। एक तत्वचिंतक व समाज सुधारक के रूप में महावीर ने प्रेमपूर्ण अहिंसात्मक जीवन पद्धति का संदेश समाज को दिया, ताकि विश्व-बन्धुत्व की भावना जनता में पैदा हो सके। पाश्चात्य विद्वान बुलहर महावीर की इस उदात्त दृष्टि से बहुत प्रभावित हैं-सर्व सत्वानां हिताय सुखायास्तु'। इस प्रकार भगवान महावीर के समय ब्राह्मण धर्म अपनी तेजस्वी प्राचीन परंपरा को थोड़े समय के लिए ही सही, विसर कर शिथिलता महसूस कर रहा था, तब जैन व बौद्ध धर्म अपने-अपने तत्वों के द्वारा लोक-हृदय में स्थान प्राप्त कर भारत के तत्कालीन इतिहास व संस्कृति में योगदान देने का प्रयास कर रहा था। जैन धर्म अनुयायियों की संख्या में विश्वास न कर उच्च चिन्तन-प्रणाली के कारण प्रचार-प्रधान न बन सका, जबकि बौद्ध धर्म मध्यम मार्ग व राज्याश्रय के कारण संपूर्ण सुविधाएं प्राप्त कर जनता में अधिक फैल गया। फलस्वरूप वह चिन्तन प्रधान कम, व्यवहार-प्रधान विशेष बन सका। वैसे बौद्ध धर्म ने भी प्राचीन भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान देकर महत्ता प्राप्त की थी। लेकिन आज बौद्ध धर्म भारत में ही जन्म लेकर विकसित होने पर भी विद्वानों से उसे पूरा पूरा न्याय मिला और प्रसिद्धि भी मिली, जबकि जैन धर्म मानवहित-प्रधान आदर्श व व्यवहारलक्षी, विशिष्ट चिन्तन प्रणाली युक्त होने से ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के विशाल अनुयायियों की तुलना में अत्यन्त कम होने पर भी जीवन्त हैं। अहिंसात्मक दृष्टिकोण व तीर्थंकरों के उपदेश में उसकी अडिग निष्ठा हैं। शायद अनुयायियों की अल्प संख्या के कारण नीति-नियमों का 1. डा. सी. जे. शाह, उत्तरभारत में जैनधर्म, पृ. 25. 2. श्री सी. जे. शाह, उत्तरभारत में जैनधर्म, पृ. 5.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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