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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
अब जो प्रगति की धारा बह रही है, उस प्रवाह में नये-नये कवि अपनी अपनी प्रतिभा, रुचि और क्षमता के अनुसार अवगाहन कर रहे हैं। इस 'प्रगतिप्रवाह' में हमारे समाज की कवयित्रियों की सरस भाव ऊर्मियां तरंगित हो रही हैं, तरुण कवियों की 'गति हिलोर' नृत्य कर रही हैं और अनेक छोटे-बडे कवियों के 'प्रयत्न-सीकर' उल्लास से उछल रहे हैं। इस 'प्रगति प्रवाह' उर्मियाँ, 'गीति-हिलोर एवं 'सीकर' के कवियों में श्री लजादेवी, श्री कमलादेवी जैन, श्री कुमुदकुमारी, मैनावती जैन, सरोजिनी देवी जैन और पुष्पलता देवी आदि कवयित्रियों की 3 कविताओं को 'ऊर्मियों के भीतर संग्रहीत किया है। सचमुच नई कवयित्रियों की लेखनी से उर्मिलप्रवाएं भावुकतापूर्ण काव्य-लहर उमड़ पड़ी है। कहीं-कहीं महादेवी वर्मा का प्रभाव भी स्पष्ट लक्षित होता है। 'मूक-याचना' में श्री प्रेमलता जी गाती हैं
किसी के आशापद की धूल, बनूँ, पथ पर छितरा जाऊँ मिलन-बेला पर प्रेयसी-सी की, टूट जग में बिखरा जाऊँ।
विरह की उत्सुकता में डूब, - हंसू, झूमू, पुलकित मधुगान
देव, मैं बन जाऊँ अज्ञान। (पृ. 183) उसी प्रकार श्री लज्जावती देवी की 'आकुल अंतर' में सुन्दर भाव देखने को मिलता है
मैं इस शून्य प्रणय वेदी पर, किन चरणों का ध्यान करूँ, मृत्युकूल पर बैठी कैसे, अमर क्षितिज निर्माण करूं?
फूल सुगंधित तूं चुन ले, शूलों से भर मेरी झोली, पर आशा-लतिका की भावुकता
स्मृतियाँ मत छीन सखी। (पृ. 177) प्रेमलता 'कौमुदी' की कविता में बरबस हमें गुप्त जी की उर्मिला की याद आ जाती है
मेरे नयनों की कुटियों में कितने दीप न जलाये री, नीरस सुप्त प्राण मेरे सहसा किसने उकसाये री।