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________________ 236 तब विवश होकर यही कहना पड़ा, माँ तुम्हारा त्याग है प्रभु ने किया । घोर वन में छोड़ आने के लिए आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य हे मुझे आदेश राघव ने दिया । सीता की असहाय, दीन दशा देखकर सेनापति रोने लगा, हाय-हाय की चीत्कारें करके सीता से क्षमा-प्रार्थना करता है। सीता की वेदना और रोदन को देखकर गूँज तब कान्तार की सीमा गई, काँपने सी लग गई जैसे धरा । रो उठा वह भीम वन भी दीन हो, पत्थरों का हृदय भी फटने लगा। यहाँ सीता की धनीभूत पीड़ा एवं परिणाम स्वरूप भीषण मर्मदाहक दशा का कवि ने सुन्दर वर्णन किया है वृक्ष भी चित्कार - सा करने लगे, रुक गई बहती हुई भी विपथगा । बाघ, भालू, सर्प, हस्ती, भेड़िये, सब चकित हो लगे उसको देखने। अन्त में सीता को वन में अकेली छोड़, धर्म को पलभर भी न त्यागने का सीता का राम के लिए संदेश लेकर चमूपति राम के पास आते हैं और अब चाहते हैं कर चुका मैं कार्य अंतिम आपका, अब मुझे स्वातंत्र्य का सुख चाहिए। है मुझे करना प्रयत्न अवश्य ही, इस दुःखद घातक गुलामी के लिए, दासता की श्रृंखला को तोड़कर, चमुपति दौड़े तपोवन के लिए, तनिक से सन्तुष्ट वह होते न थे, पूर्ण आजादी उन्हें थी चाहिए। ( पृ० 78-79) 'त्रिशलानंदन' सिद्धार्थ - नंदन - सा ही काव्य है। दोनों काव्य में समान विचारधारा है। वर्धमान के जन्मपूर्व की हिंसामय परिस्थिति का वर्णन एवं वर्द्धमान के जन्म बाद अहिंसा के साम्राज्य की चर्चा की गई है। किस प्रकार हिंसा से विमुख होकर अहिंसा का महत्व जनता को समझाया और प्रभु ने अहिंसा का महत्व प्रतिपादित किया, यही इस काव्य की मुख्य ध्वनि है। इस प्रकार श्री भगवत् जैन द्वारा लिखित 'मधु-रस' छोटे-छोटे आठ काव्यों का संग्रह है, जिनकी आधारभूमि जैन दर्शन का कोई न कोई सिद्धान्त रहा है-अहिंसा, गुरुभक्ति, रात्रि भोजन त्याग, दया, क्षमा, प्रेम आदि का महत्व व्यक्त किया गया है। काव्य की भाषा सरल एवं शुद्ध खड़ी बोली है, जिसमें
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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