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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 223 राजुल : आधुनिक हिन्दी जैन काव्य के अंतर्गत प्रबन्धात्मक रचना में दूसरा महत्वपूर्ण खण्ड काव्य 'राजुल' उपलब्ध होता है। जैन साहित्य में राजुल और नेमिनाथ को लेकर विशाल साहित्य सृजन हुआ है। नेमिनाथ जैसे सुन्दर : तेजस्वी राजपुत्र बलि के प्राणियों की आर्त पुकार सुनकर विवाह मण्डप से बिना शादी किए ही लौट जाते हैं, तथा वैराग्य ग्रहण कर तपश्चर्या करने के लिए गिरनार पर्वत जाते हैं। उनके मानव उद्धार के लिए उपाय खोज निकलने के प्रयत्न काव्य-प्रसंगों के लिए अत्यन्त मार्मिक बन जाते हैं । उसी प्रकार रूप - गुण संपन्न राजकुमारी - राजुल का वैभव-विलास सुख-समृद्धि छोड़ जिनको पति मान चुकी है और जिनके साथ शादी होने वाली थी, ऐसे पति के पद चिह्नों का अनुसरण करने के लिए युवावस्था में संसार त्याग करना हृदयग्राही और आकर्षक विषय रहा है । तथैव राजुल की वियोगावस्था, पति को प्रेमपूर्वक ऋतुओं की विषमता और त्याग की कठिनता का ख्याल देना आदि काव्य के लिए रसात्मक विषयवस्तु बन सकती है। करुण, वियोग श्रृंगार एवं शांत रस की निष्पति की काफी संभावना इस कथा में रहती है । राजुल खण्ड काव्य के रचयिता नवयुग के नवयुवक कवि बालचन्द्र जैन हैं, जिन्होंने इस काव्य में जैन संस्कृति को मानव के लिए जीवनादर्श बनाने का आभास किया है। जैन धर्म के त्याग व प्राणी मात्र के कल्याण हेतु स्व के सीमित दायरे से उठकर परमार्थ में संलग्न होने का आदर्श व्यक्त किया है। आत्म-समर्पण कर आत्म साधना में लीन ऐसी राजुल देवी के जीवन की झांकी करवाई है। कथावस्तु : प्रथम सर्ग 'दर्शन' में कल्पना की सहायता से कथा के मर्म स्थल को तीव्रता एवं रोचकता प्रदान की गई हैं। जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की पुत्री राजुल और द्वारकाधिपति समुद्र विजय के पुत्र नेमिकुमार का प्रथम साक्षात्कार द्वारिका की वाटिका में कवि ने करवाया है, जहाँ नेमिकुमार मदोन्मत जगमर्दन हाथी से वनविहार के लिए उपवन में आई राजुल की रक्षा करते हैं। यह प्रथम मिलन ही प्रणय कलिका के रूप में परिणित हुआ है। और दोनों की आँखों में प्रेम का प्रगल्भरूप प्रकट होने लगा। जूनागड़ लौटने पर सभी मिलन की स्मृतियाँ राजुल को पीड़ा दे रही थीं, उधर द्वारिका में नेमिकुमार के हृदय में भी राजुल की स्मृति टीस उत्पन्न कर रही थी। दोनों ओर पूर्व- राग तीव्र हो उठा और मिलन के लिए आतुर हो गये। यदि भाग्य का विधान कुछ और होता तो यही अरुण राग विवाह मंडप की ओर जा रही थी, कि रास्ते में मूक पशुओं की
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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