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________________ 220 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य खुद जियो और दो जीने। मानव को क्या पशुओं को भी, दो इच्छित खाने-पीने। सन्देश सुना यह जग को, सब वातावरण बदलना। इससे ही मेरे पथ में बाधक ही रहेगी ललना।' नारी को वे धिक्कारते थे ऐसा भी नहीं है। नारी का तो समाज में आदरपूर्ण स्थान होना चाहिए, इससे विपरीत नारी की समाज में करुण स्थिति देख वे द्रवित हो गए हैं। नारी तो यहाँ तक ही त्याज्य या बाधक है, जहाँ तक यह असंयमित जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन जब नारी सहयोगी बन जीवन को सत्कार्य की ओर प्रेरित करती है तब वह सच्ची सहधर्मचारिणी बन जाती है अतः मनुष्य की जीवन साधना में उसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है। महावीर ने अपने समय में ही नारी की पहचान करवाई थी। उनकी इस विचार धारा से कवि भलीभाँति परिचित लगते हैं। अतः पूरे काव्य में वर्धमान पशुओं की निर्दोष बलि, सामाजिक बाह्याडम्बर, आचार-विचार, राजकीय व धार्मिक नेताओं का कलुषित व्यवहार आदि पर निरन्तर सोचते-विचारते ही रहते हैं-देखिए सन्मति वैराग्य उदधि में, जाते थे प्रति क्षण बहते। जग-दशा देखते थे वे, नृप-मन्दिर में ही रहते। ज्यों ज्यों ही उनके जग केअति नग्न दृश्य को देखा। त्यों खिंचती गयी अमिट बन, उर पर विराग की रेखा॥ 3-25॥ नारी की दीन दशा के संदर्भ में उनके हृदय में तीव्र मन्थन रहता हैबनती कठपुतली पति की, जिस दिन कर होते पीले। पति इच्छा पर ही निर्भर हो जाते स्वप्न रंगीले। केवल विलास सामग्री ही मानी जाती ललना, गृहिणी को घर में लाकर वे समझा करते चेरी। 1. द्रष्टव्य-धन्यकुमार जैन रचित 'विराग' द्वितीय सर्ग, पृ० 29.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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