________________
आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
209 करेण भाँति की, गुलाब चंपकी कली। बहार बहोत मोगरा की, क्या कहूँ बताइये॥ 1-206॥ सरोज है कुमुद है, सुकेत की सुहावती। मनावती यथा मनोज, नैन को नचाइये॥ पुकारते पुरुष जात, प्रान प्यारि आइये। वृथा वसन्त की अनंत, मोज न गुमाइये। 1-207॥ वृक्षों को भी इसी उपवन में कवि ने एक साथ शोभित होते हुए बताये
'वीरायण' में प्रतिबिंबित दार्शनिकता :
'वीरायण' महाकाव्य की आधिकारिक कथावस्तु एवं नायक जैन धर्म से सम्बंधित होने से स्पष्टतः इसमें जैन धर्म के तत्वों व आचार-विचार सम्बंधी विचार-धारा का निदर्शन रहता है। भगवान महावीर के वैराग्य, दीक्षा, ज्ञानप्राप्ति, अनुयायी वर्ग तथा उपदेश को इसमें काव्यात्मकता से गुंफित कर दिया है। अतः स्वाभाविक है कि इसमें महावीर के उपदेश का सैद्धांतिक व व्यावहारिक पक्ष उजागर किया गया है। अनूप शर्मा के 'वर्धमान' महाकाव्य में भगवान महावीर के चरित द्वारा जैन धर्म के सैद्धांतिक पक्ष की अधिक चर्चा की गई है। भगवान को जड़ता को दूर कर नये प्रकाश का प्रसार करना था। अतः दीक्षा अंगीकार के पश्चात साड़े बारह वर्ष तक तीव्र चिन्तन-मंथन के अनन्तर 'सोलहगुण स्थानक' की स्थिति पर पहुँच कर 'केवल ज्ञान' प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात जनता के बीच में घूम-घूम कर उन्होंने अभयदान, क्षमा, अहिंसा, प्रेम, शान्ति आदि कल्याणकारी तत्वों की महत्ता पर जोर दिया। दार्शनिक पक्ष की मीमांसा 'वीरायण' में अत्यन्त की गई है, जिससे काव्य में सरलता रही है। महावीर की गूढ़ दार्शनिक चिन्तन प्रणाली, बारह शुभ-भावना, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा व मोक्षादि की चर्चा यहाँ हमें प्राप्त नहीं होती। जन्म, मृत्यु लोभ-मोह, संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता व आचार-विचार के सम्बंध में कवि ने महाकाव्य में प्रकाश डाला है। मृत्यु की अनिवार्यता के विषय में कवि लिखते हैं
किसको न होरे काल कब, शोचो सकल जहान। कर्तव्यपालन करो, अटल नियम यही जान।। 354॥
धन ही सर्व सांसारिक विकारों एवं माया-ममता का मूल है क्योंकि धन से ही1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण' प्रथम खण्ड, पृ० 43