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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 175 अदर्शनीय, अनलंकृता, अ-भा, अभागिनी भी अबला अमानुषी। "परन्तु तो भी निज-मातृ-दीक्षिता, अजस्त्र ही पंच-नमस्क्रिया-युता, विजेन्द्र-पादावनता सदैव सो निहारती थी पद देव-देव का। कमी रही सुन्दर राज-कन्यका, अरण्य-क्रीड़ा करती छली गयी, जहां किसी कामुक यक्ष ने उसे कुवासना से निज साथ ले लिया।' इस प्रकार 'वर्धमान' महाकाव्य में मुख्यतः शान्त रस के साथ-साथ शृंगार, करुण एवं रौद्र-रस का भी यत्किचित समायोजन किया गया है। प्रकृति-चित्रण : महाकाव्य में कथावस्तु, नेता एवं रस की उत्कृष्टता एवं उत्कटता पर जोर दिया जाता है। इसके साथ ही महाकाव्य में विविध वस्तु-वर्णन, संध्या, सूर्योदय चन्द्रोदयादि प्रकृति के नाना तत्वों का कलात्मक वर्णन जहां एक ओर से महाकाव्य में रसात्मकता व सौन्दर्य भर देता है, वहां दूसरी ओर उसके कलेवर को पुष्ट करने में सहायक रहता है। प्रकृति के सुरम्य ललित अंगों के मनोरम्य वर्णन बिना माधुर्य की अनुभूति व भावोत्कर्ष संभव नहीं। आदि काव्य से लेकर अधुनातम काव्यों में प्रकृति के विविध रूपों को शब्द बद्ध किया गया है। कहीं प्रकृति का स्वतंत्र वर्णन होता है, तो कहीं प्रकृति के उपमानों द्वारा मानव सौंदर्य की श्रीवृद्धि। कहीं उसका मानवीकरण, तो कभी-कभी मानव के लिए कौतूहल का विषय बनती है। कहीं पर अपने सरस स्निग्ध आंचल में मानव को आश्रय देती है, सुख और शांति प्रदान करती है, तो कहीं वह निवृत्ति-मूलक मानव की तपोभूमि बनती है। कहीं वह अभिसारिका है, तो कहीं दूतिका बन जाती है। कहीं वह मानव को आनन्द प्रदान करती है, तो कहीं वह मानव के सुख-दुःख से स्पन्दित होती है और मानव को सांत्वना प्रदान करती है। एवं कहीं कवि प्रकृति की ओट में अपने दार्शनिक सिद्धान्तों की अभिव्यक्ति करता है। परम्परानुसार प्रकृति वर्णन दो प्रकार का होता है-(1) आलम्बन गत (2) उद्दीपन गत। 1. अनूप शर्मा-'वर्द्धमान', पृ. 485, 486-184, 188, 187. 2. प्रो. दमयन्ती तालवार-'सिद्धार्थ में प्रकृति चित्रण' नामक निबंध, पृ. 92-93. __ अनूप शर्मा-'कृतियां और कलां' के अन्तर्गत।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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