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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 171 प्रथम सर्ग में कवि त्रिशला के देह-सौंदर्य का मनोहर वर्णन करते हैंमुखेन्दु था इन्दु कलंक-हीन ही, अलकत-बिंबाधर-बिंबहीन ही, अहर्निशा फुल्ल-सरोज नेत्र की अनूप आभा अवलोकनीय थी। सरोज-सा वस्त्र सु-नेत्र-मीन-से, सिवार-से केश, सुकंठ कंबु-सा, उरोज ज्यों कोक, सु-नाभि भोर-सी, तरंगिता थी त्रिशला-तरंगिणी।' पांचवें सर्ग में राजा सिद्धार्थ का प्रेम उदात्त स्वरूप धारण करता है। प्रथम व द्वितीय सर्ग में चर्चित मांसल प्रेम उच्च धरातल पर पहुंच जाता है। इस सर्ग में दोनों का स्नेह कितनी उच्चता को प्राप्त करता है प्रभो! मुझे हो किस भांति चाहते? यथैव निः श्रेयस चाहते सुधी। प्रिये! मुझे हो किस भांति चाहती? यथैव साध्वी पद पार्श्वनाथ के। विभावना ईश प्रदत्त प्रेम की कही अनैसर्गिक संपदा गयी, विलोचनों के, प्रभु! एक बुन्द में प्रतीत सारी वसुधा लखी गई। स्नेह का धरातल कितना ऊंचा उठाया गया है, जो सत्य ही आकर्षक के साथ भाव-प्रवण भी प्रतीत होता है। आखिरकार वीतरागी तीर्थंकर के माता-पिता के योग्य ही वार्तालाप का स्तर उदात्त बन गया। पांचवें सर्ग में तो सर्वत्र विशुद्ध प्रेम की धारा ही उमड़ती है। राजा-रानी की प्रेम ध्वनि-प्रतिध्वनि मांसल स्नेह का त्याग कर सात्विकता से गुंजित होती है। राज दम्पत्ति के वार्तालाप में भावोत्कर्षता अपनी चरम उत्कृष्टता को प्राप्त करता है। काव्य में यही रोचक व मानवीय भावानुभूतियां जीवन्तता भर देती है। राजा सिद्धार्थ सहधर्मचारिणी के महत्त्व को अंकित करते हुए त्रिशला से कहते हैं वहित्र-सा जीवन मध्य रात्रि के, पड़ा रहा चन्द्र-विहीन सिन्धु में, 1. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 54-55-76-81. 2. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 158, 162, 76-93.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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