SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 170 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य नतांगि! तेरे युग-चक्षु कंज से, सदैव है तत्पर चौर कर्म में, न रात्रि को ही मनचित लूटते, विपत्ति भी है दिन को न छोड़ते। सरोज क्यों तूं रखती स्वकर्ण में, रहस्य क्या है कल-भाषिणी प्रिये। न मैं हुआ किंचित स्पष्ट उत्तमे । न आज पर्याप्त अपांग-पात क्या?' प्रेमी सिद्धार्थ त्रिशला के देह-लालित्य से अत्यन्त प्रभावित हो, उनकी एक-एक अंगभंगिमा चित्रित करते हुए अपनी रसात्मक भावोर्भि-व्यक्त करते हैं त्वदीय पाताल-समान नाभि है, उरोज हैं उच्च नगाधिराज-से। मनोज्ञ वेणी इस भांति है लसी। कलिन्दजा का विनिपात हो यथा। सरोज से संभव है सरोज का सुना गया किन्तु न दृष्टि-गम्य है; परन्तु तेरे मुख-पुंडरिक में विलोकता हूं युग-पारिजात मैं। प्रिये! सदा पूर्णतया मनोहरा कलंक-हीना छवि देख आस्य की स-लज्ज भागा विधु उच्च व्योम सेए समुद्र में डूब मरा अधीर हो। त्वदीय आलिंगन-हेतु, हे प्रिये। हुआ न क्यों आज सहस्त्रबाहु मैं, विलोकने को छवि अंग-अंग की, बना न क्यों, देवि! सहस्त्र-चक्षु मैं?' 1. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ० 82, 35, 36. 2. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 83, 39, 40. 3. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ० 84-85, 44-67.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy