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अहो! अलंकार विहाय रत्न के, अनूप-रत्न-त्रय-भूषितांग हो, तजे हुये अंबर अंग-अंग से, दिगंबराकार विकार - शून्य हो ।
आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
समीप ही जो पट देवदूष्य है, नितान्त श्वेतांबर - सा बना रहा, अ-ग्रन्थ, निद्वन्द्व महान संयमी, बने हुए हो जिन-धर्म के ध्वजी । '
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यहां चरित - नायक के तेज, अग्रथित्व, संयम की यश-कीर्ति के साथ-साथ कवि ने श्वेताम्बर - दिगम्बर मान्यता का भी परोक्षतः समन्वय कर दिया है। नायक के वैराग्य एवं चिन्तन के वर्णन से जो भव्यता या अति मानवीयता उत्पन्न होती है, उसके संदर्भ में डा० विश्वंभरनाथ उपाध्याय लिखते हैं- "यदि अनूप शर्मा ने सिद्धार्थ और त्रिशला पर अधिक ध्यान दिया होता, राग और विराग के अन्तर्द्वन्द्व को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया होता, जैसा कि 'बुद्ध चरित' में मिलता है, तो 'वर्द्धमान' अधिक मर्मस्पर्शी होता । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह असंभव लगता है कि महावीर जन्म से ही विरागी रूप में चित्रित किये जाएं। साधना की दृष्टि से अथवा सम्प्रदाय की दृष्टि से जो ठीक है, वह काव्य के लिए भी ठीक हो, आवश्यक नहीं। अतः 'वर्द्धमान' महाकाव्य में महावीर की अति मानवीयता काव्य के लिए उपयुक्त नहीं हो सकी। जब त्रिशला और सिद्धार्थ के मुक्त शृंगार के वर्णन से जैन - -समाज क्रुद्ध नहीं हुआ तो महावीर के उदात्त जीवन के प्रारम्भ में यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, कोमल क्षणों और साधनापरकता का ठाठ और विकास दिखाया गया होता तो इससे महावीर इस युग के अधिक अनुकूल प्रतीत होते ।
'वर्धमान' काव्य के अन्तर्गत अनूप शर्मा ने महावीर का उदात्त चरित्र - चित्रण गंभीर विचारात्मक शैली में कर एक अछूते विषय को महाकाव्य का आधार बनाकर स्तुत्य कार्य किया है। नायक के यौवन से दीप्त स्वरूप - वर्णन कवि ने अत्यल्प किया। धार्मिक नेतृत्व एवं वैराग्यमूलक अंश को कवि ने दस से सत्रह सर्गों तक प्राधान्य दिया है। महावीर की दिव्य मूर्ति का कवि वर्णन करते हैं
1. अनूप शर्मा - वर्द्धमान, पृ० 432-433-119-120.
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डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय - अनूप शर्मा-कृतियां और कला के अन्तर्गत, 'वर्धमान' और द्विवेदीयुगीन परम्परा' शीर्षक निबंध, पृ० 151-152.