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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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सखे! विलोको वह दूर सामने, प्रचण्ड दावा जलता अरण्य में। चलो, वहां के खग-जीव जन्तु को, सहायता दें, यदि हो सके, अभी।'
लेकिन वन में वह आग न होकर उनकी परीक्षा लेने के लिए भयंकर सर्प का रूप लेकर आया हुआ देव था। उस बृहत्-काय कृपीट सहस्र भोगी सर्प को महावीर निर्भयता से दूर फेंक देते हैं तथा भविष्य में कभी निर्दोष प्राणियों को कष्ट न पहुंचाने का आदेश देते हैं। उसी समय से वे वर्धमान से 'महावीरके नाम से जगत में ख्यात हुए
उसी घड़ी से जग में जिनेन्द्र की, सुकीर्ति फैली जन-चित्त-मोहिनी। न नाम से केवल वर्द्धमान के, सभी महावीर पुकारने लगे।
यौवनावस्था में भी महावीर ने विकारों को जीत लिया था, अतः 'वीतरागी' हुए तथा प्राणीमात्र के प्रति करुणा पूर्ण व्यवहार रखते थे
तम्हीं विजेता मद-मोह-मान के, अचूक नेता तुम आत्म ज्ञान के। विमोक्ष-द्वारा-पति देव! सर्वथा, प्रदान कल्याण करो त्रिलोक को।
स्वभाव से आप पवित्र-देह हैं, स-देह हैं, किन्तु सदा विदेह हैं। समस्त जीवों पर आपकी, प्रभो,
अहेतुकी है करुणा कृपा-निधे। कुमार वर्द्धमान युवावस्था में पत्नी के साथ रहकर भोग-विलास और वैभव का जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा जीवन की असारता, जन्म-मृत्यु के चक्र आदि विषयों पर गहनता से विचार करते रहते थे। परिणाम स्वरूप पूर्ण यौवनावस्था में संपूर्ण संपत्ति का वर्ष भर दान करके प्रवज्या अंगीकार कर ली। महावीर की उस समय की कान्ति दर्शनीय है1. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 261-17. 2. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ. 267-40. 3. अनूप शर्मा-वर्द्धमान, पृ० 270-52-53.