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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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कवि ने कथानक के प्रवाह में जहां वैदिक तत्त्वों की यथार्थ विवेचना की ओर संकेत किया है, वहाँ कुछ बातें ऐसी भी है, जो जैन दर्शन की मौलिक मान्यताओं से मेल नहीं खाती-जैसे अवतारवाद, पराजयता, ईश्वर, मृत्यु आदि के विषय में कवि ने महावीर के मुख से जो कहलवाया है, इसके सम्बंध में कवि के मन में भी ठीक से सामंजस्य नहीं बैठता है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है, जैसे-'लोकनाथ की बिना अनुज्ञा डसती न मृत्यु हैं।' (पृ. 330-61) 'चतुर्दिशा ईश्वर से विनिर्मिता-विरोध माना यह सृष्टि धन्य है।' (पृ. 365-83) जैन दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं किया जाता। स्वयं मनुष्य और उसके कर्म ही महत्वपूर्ण हैं। विश्व किसी सत्ता के द्वारा नहीं, अपितु वैज्ञानिक क्रमानुसार अनादिकाल से चलता आया है। इसी प्रकार अवतारवाद एवं पराश्रेयता के विचार भी जैन परम्परा से विरुद्ध है, यथा
मनुष्य जो है पहचानते मुझे वही प्रशंसा करते सप्रेम हैं। समस्त संसार हितार्थ में सदा, स्व जन्म लेता करता सुकर्म हैं।
(पृ. 296-46) यहां गीता के भगवान श्रीकृष्ण का शत्रु-विनाश और सन्तों की रक्षा हेतु बार-बार जन्म लेने के उपदेश का कवि के मानस पर स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है। उसी प्रकार महावीर की निम्नोक्त स्वप्रशस्ति भी सुसंगत नहीं है
'स्व-मृत्यु संध्या तक यों चले चलो, न दूर यात्रा-श्रम हो मुझे भजो।'
इसीलिए तो ग्रन्थ के 'आमुख' में विद्वान संपादक लक्ष्मीचन्द्र जैन को लिखना पड़ा, 'वर्द्धमान' के पाठक यदि ध्यान से ग्रन्थ का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि कवि ने दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नाय में ही नहीं, जैन धर्म एवं ब्राह्मण धर्म में सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न किया है। कवि स्वयं ब्राह्मण है, उसने अपनी ब्राह्मणत्व की मान्यताओं को भी इस काव्य में लाने का प्रयत्न किया है।'
इसी प्रकार बालक वर्द्धमान की परीक्षा लेने के लिए आये देव सर्प का रूप धारण करते हैं और बालक उसको पकड़ कर नाचते हैं। यहां कृष्ण के कालीय-दमन का चित्र कवि के मानस पर प्रभाव डालता रहता है। सर्प की भयंकरता व उसके फलस्वरूप विक्षुव्यता का भी कवि ने वैसा ही वर्णन किया
प्रचण्ड दावानल की शिखा यथा,
प्रलम्ब है धूम नगाधिराज-सा। 1. लक्ष्मीचन्द्र जैन, आमुख, पृ॰ 17.