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आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
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घटनाओं, परिस्थितियों या दृश्यों की योजना नहीं होती। इसमें कवि स्वयं पात्र के पद पर आसीन रहता है। और उसकी मनः स्थिति ही काव्य का प्रधान विवेच्य बन जाती है। प्रत्येक मुक्तक अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है, यह पूर्वापर क्रम से मुक्त रहता है, यही इसके नाम की साथर्कता है। मुक्तक नामानुसार अपने आप में मुक्त रचना होती है, किसी भी प्रसंग-कथा या दृश्य के पूर्वापर सम्बन्ध से इसका कोई सरोकार नहीं होता। हां, इसमें भावों की तीव्रता व अभिव्यक्ति की मार्मिकता अवश्य प्रेक्षणीय होनी चाहिए, अन्यथा कवि के भावजगत के साथ पाठक का मानसिक तादात्म्य स्थापित सरलता से न होने पर रसानुभाव में क्षति पहुंचाती है। “यद्यपि मुक्तक के दो वर्ग पाठ्य या विषय-प्रधान मुक्तक और गेय या विषयी प्रधान मुक्तक माने जाते हैं, किन्तु अब पाठ्य मुक्तकों को ही मुक्तक और विषयी प्रधान या भावात्मक मुक्तकों को 'प्रगीत' या 'गीति' कहा जाता है।" अतः स्पष्ट फलित होता है कि मुक्तक के लिए भावविह्वलता, सांकेतिकता और विदग्घता के साथ हृदय की स्वानुभूतिका उन्मुक्त वर्णन अपेक्षित रहता है। मुक्तक में एक विचार, भाव, पल, बीज मात्र का रहना यथेष्ट है, जो पाठक के चित्त को झकझोर कर रसमय आनंद की लहर का स्पर्श करा दे। प्रबन्धकार भाव जगत के साथ समाज का दिग्दर्शन करता-कराता है जबकि मुक्तक कार सामान्य सांसारिकता के ऊपर या असंपृक्त रहकर भाव-गगन में विहार करता हुआ अतवृत्तियों को रोचकता व लयबद्धता से अभिव्यक्त करता है।
काव्य के विविध रूपों की चर्चा के उपरान्त अब हम यहां आधुनिक-हिन्दीजैन-साहित्य में काव्य विधा का अनुशीलन करेंगे और देखेंगे कि उपर्युक्त रूपों का जैन काव्यों में किस प्रकार विनियोजन हुआ है। सर्वप्रथम जैन महाकाव्यों की चर्चा अभीप्सित रहेगी। आधुनिक-हिन्दी-जैन-साहित्य अपनी विविध विधाओं में प्रगति कर रहा है। इस युग में प्राचीन और मध्यकाल की भांति पद्य की ही रचनाएं उपलब्ध न होकर गद्य की भी अनेकानेक कृतियां प्राप्त होती हैं, बल्कि यह कहना समुचित-युक्ति संगत-होगा कि इस गद्य युग में पद्य की रचनाएं अपेक्षाकृत कम प्राप्त होती है और गद्य भिन्न-भिन्न धाराओं में प्रवाहित होकर अपने को पुष्ट कर रहा है। पद्य में प्रबन्ध की रचनाएं प्राप्त तो होती हैं लेकिन इतने विशाल साहित्य के सन्दर्भ में उनकी संख्या संतोषप्रद न कही जायेगी, वैसे
1. डा. विश्वनाथ प्रसाद-कला एवं साहित्य, प्रवृत्ति और परंपरा, पृ. 74. 2. आ. विश्वनाथ प्रसाद-कला एवं साहित्य प्रवृत्ति और परंपरा, पृ. 88, कविता क्या
है? अध्याय-3.