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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
जीवनी में अन्य व्यक्तियों की विशेषता पर निकट रहकर प्रकाश डालना होता है, त्रुटियों को थोड़ा-बहुत नजर अन्दाज भी किया जा सकता है। जबकि आत्मकथा में आप बीती को सम्पूर्ण सत्य एवं हार्दिकता के साथ जग-समक्ष रखना कुछ मुश्किल व निर्भयता की सहाय लेने की आवश्यकता रहती है। आत्मकथा के अभाव पर प्रकाश डालते हुए श्री नेमिचन्द्र जी लिखते हैं कि- " यही कारण है कि किसी भी साहित्य में आत्मकथाओं की संख्या और साहित्य की अपेक्षा कम होती है। प्रत्येक व्यक्ति में यह नैसर्गिक संकोच पाया जाता है कि वह अपने जीवन के पृष्ठ सर्वसाधारण के समक्ष खोलने में हिचकिचाता है, क्योंकि उन पृष्ठों के खुलने पर उसके समस्त जीवन के अच्छे या बुरे कार्य नग्न रूप धारण कर समस्त जनता के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं और फिर होती है उनकी कटु आलोचना । यही कारण है कि संसार में बहुत कम विद्वान ऐसे हैं, जो उस आलोचना की परवाह न कर अपने जीवन की डायरी यथार्थ रूप में निर्भय और निधड़क हो प्रस्तुत कर सकें।
हिन्दी जैन आत्मकथा साहित्य में श्री क्षुल्लक गणेश प्रसाद वर्णी की 'मेरी जीवन गाथा" एवं श्रीअजित प्रसाद जैन की 'अज्ञात जीवन" उपलब्ध है, जबकि जिन विजय मुनि की 'मेरी जीवन-प्रपंच कथा' का उल्लेख मिलता है। प्रथम उपलब्ध रचना है जबकि अन्य दो out of print होने से अनुपलब्ध है। वर्णी जी ने अपनी जीवन गाथा में निभर्यता से अपनी कमजोरियां, हठग्रह या जिनसे भेंट मुलाकात हुई उनके सभी विषय में निर्भर विचार - प्रतीति रख दी है। जीवन की दार्शनिकता, जैन-धर्म की दार्शनिकता, एवं जैन समाज की सामाजिक, धार्मिक परिस्थिति का भी अच्छा चित्रण इसमें हुआ है। वर्णी जी ने यह आत्मकथा लिखकर जैन समाज की ही नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य का भी उपकार किया है। यह इतनी रोचक शैली में पारावाहिकता के साथ लिखी गई है कि पाठक इसको पढ़ते समय नीरसता या ऊब न महसूस कर एक सुन्दर उपन्यास पढ़ने-का-सा आनंद ग्रहण अनुभव कर सकता है।
बाबू अजीतप्रसाद की आत्म कथा में उन्होंने अपने जीवन को समाज से अज्ञात नहीं रखा है। समाज में काफी मान-सम्मान प्राप्त होने पर भी अपने को अज्ञात रखना ही उन्होंने पसंद किया है। इसमें उनकी महानता का नम्रता का ही दर्शन होता है। लेखक ही आत्म कथा में जैन धर्म एवं समाज के प्रति आदर की भावना लक्षित होती है।
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1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री - हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, पृ० 139.
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प्रकाशक - वर्णी ग्रन्थमाला-पदेनी- काशी।
3. प्रकाशक - रायसाहब रामदयाल अग्रवाल-प्रयाग।