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________________ आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय 95 प्राचीन कथावस्तु के साथ महान चरित्रों की किसी महत्त्वपूर्ण जीवन-घटना का भावमयी शैली में अंकन किया गया होगा। यहां हम उपलब्ध खण्डकाव्यों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं। राजुल' : नवयुवक कवि बालचन्द्र जैन ने इस खण्डकाव्य की रचना जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की वाग्दत्ता राजुल के अभूतपूर्व त्याग, प्रेम एवं महान आदर्श की भावना से प्रेरित होकर की है। इसमें प्रसिद्ध प्राचीन आख्यान को लेकर जैन दर्शन के उत्कृष्ट आदर्श पात्र भगवान नेमिनाथ को मानव-मात्र का आदर्श बनाने का कवि ने उपक्रम किया है। भगवान नेमिनाथ जी की भावी आदर्श पत्नी राजुल की उत्कृष्ट प्रेम-भावना, विरह तथा आत्मसाधना की झांकी कवि बालचन्द्र ने मार्मिक रूप से अंकित की है। राजकुमारी राजुल ने संकल्प मात्र से ही जिसका पतिरूप में वरण किया था, उस नेमिकुमार के वैराग्य ग्रहण के पश्चात् सर्वस्व समर्पण कर स्वयं भी उनके त्याग-मार्ग की अनुयायी बन गई और अपने अनन्य संयम व एकनिष्ठ साधना से जैन धर्म व समाज को प्रेरित किया। राजुल ने सांसारिक वैभव, अपार सुख-समृद्धि एवं सुकुमार रूप सौन्दर्य व पारिवारिक मोह का क्षण मात्र में त्याग कर अतीव कष्टदायक साध्वी पद स्वेच्छा से स्वीकार कर मानव-कल्याण के लिए त्याग मार्ग का अनुसरण किया था। _ 'राजुल' के प्रारंभ में नेमिकुमार के विवाह-मण्डप से लौट जाने पर नवयौवना कोमलांगी राजुल को आघात, मोह तथा मूर्छा आ जाती है। अतः नेमिकुमार के प्रति हार्दिक अनुराग होने से माता-पिता के अन्य राजकुमार से विवाह कर लेने का प्रस्ताव ठुकरा देती है तथा नेमिकुमार के साथ ही त्यागमार्ग स्वीकार कर आत्म-साधना में लीन हो जाने के लिए उद्धत होकर राजुलमती आत्म-संयम का परिचय देती है। इस काव्य में दर्शन, स्मरण, मिलन, विरह और उत्सर्ग नामक पांच सर्ग हैं। भाव और भाषा की दृष्टि से यह काव्य मध्यम कोटि का होने पर भी उसकी सरलता व स्निग्धता आकर्षक है। 'राजुल' खण्डकाव्य आधुनिक हिन्दी जैन खण्डकाव्यों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। विराग : श्री धन्यकुमार जैन 'सुधेश' का यह खण्ड काव्य एक भावात्मक रचना है, जिसमें कवि ने कुमार वर्धमान के जीवन-संदेश द्वारा मानव-जीवन को प्रकाशित करने का आदर्श प्रस्तुत किया है। 'सुधेश' जी का हाल ही (1975) 1. सन् 1948, प्रकाशक-साहित्य साधना समिति, काशी। 2. प्रकाशक-भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ-मथुरा।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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