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आधुनिक हिन्दी जैन साहित्य : सामान्य परिचय
के महाकाव्य की भाषा शैली से स्पर्धा करने का किंचित् मात्र नहीं रहा है। उन्होंने केवल प्रेरणा ही ग्रहण की है। इस प्रकार 'वीरायण' जैसे महाकाव्य की रचना करके मूलदास जी ने हिन्दी जैन साहित्य को उपकृत ही किया है। आधुनिक हिन्दी जैन काव्य को एक अहिन्दीभाषी कवि की यह भेंट श्लाघ्य ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। चन्द्रप्रभ पुराण :
आलोच्य काल के अन्तर्गत एक और महाकाव्य सूचना 'प्रेमी अभिनंदन ग्रन्थ' के अन्तर्गत श्री परमानन्द जैन के 'जैन सिद्धान्त भवन के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ' शीर्षक निबंध से उपलब्ध हुई है। यह केवल हस्तलिखित ग्रन्थ है, प्रकाशित नहीं हुआ है। संवत् 1912 (ई० 1856) में हीरासिंह नामक कवि ने भादो कृष्ण त्रयोदशी को सोलह अधिकार एवं 3000 श्लोको में इस ग्रन्थ की रचना की थी। कविवर ने यह कृति गुणभद्राचार्य विरचित 'उचर पुराण' के आधार पर हिन्दी के विविध छन्दों में रची है। कवि की रचना से एक-दो दृष्टान्त उद्धृत किये जाते हैं। भाषा-शैली पर प्राचीनता का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। यथा-पुत्र-शोक से उद्विग्न-संतप्त राजा की दशा का वर्णन देखिए
मूर्छा पाय धरनि पर पर्यो, मानो चेतन ही निसरौ। अब किनो शीतल उपचार, भयो चैत नृप करे पुकारा॥ हां! हां! कुंवर तूं गयो काय, तो बिन मोको कछू न सुहाय। सिर छाती कूटे अकुलाय, सुनत सभा सब रुदन कराय॥
पुत्र-रहित मनुष्य की दशा पर कवि कहते हैं(कवित्त) कमल बिना जल, जल बिना सरवर,
सरवर बिना पूर, पूर बिन राय। राम सचिवबिन, सचिव बिना बुद्धि, बद्धि विवेक जिनको सोभा न जाइ। विवेक बिना क्रिया, क्रिया दयाबिन, दयादान बिन, धन बिन दान। धन बिन पुरुष तथा बिन रामा,
रामा बिन सुत त्यों जग माहि॥ आधुनिक युग के प्रारंभ की रचना होने से भाषा पर ब्रज का स्पष्ट प्रभाव वर्णन शैली में भी प्राचीन प्रभाव विशेष दिखाई पड़ता है। 'चन्द्रप्रभ पुराण' द्रष्टव्य-प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ', पृ. 503.