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पुरोवाक्
भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा प्रवृत्ति मार्गी थी। प्रवृत्ति के कारण यज्ञीय विधानों में विविध प्रकार की कर्मकाण्डों की क्रमशः वृद्धि के कारण जन-जीवन अत्यधिक व्यस्त और विलासी हो गया था और जीवन के लिए एक नये मार्ग की अन्वेषणा में था। इस नये मार्ग में उपनिषदों का ज्ञान मार्ग प्रस्फुटित हुआ परन्तु इस ज्ञान के अतिशयता के कारण लोक कर्म बाधित हुआ। इसलिए एक नये विचार की प्रत्यासा में ही जैन एवं बौद्ध धर्म का अभ्युदय हुआ। इस नये धर्म ने भी श्रम और तपस्या की जिस साधना पर बल दिया उसी को पाणिनि ने श्रमण शब्द से अभिहित किया जो पूर्ववर्ती बौद्धायन श्रौत सूत्र में 'श्रमण' कहा गया। जिसका अर्थ अथर्ववेद में सदगण और पाणिनि ने तपस्वी अर्थ में ग्रहण किया है। जैन एवं बौद्ध की निवृत्ति मार्गी परम्परा में इन्हीं मुनियों और तपस्वियों को श्रमण कहा गया।
___ बौद्ध ग्रन्थ विनयपिटक, मज्झिमनिकाय के महावग्ग और थेरीगाथा में महावीर स्वामी के लिए प्रयुक्त आदरसूचक सम्बोधन वीर शब्द का प्रयोग बुद्ध के लिये भी किया गया है। इसी प्रकार महात्मा बुद्ध को भी जिन अर्थात् पाप कर्मों को जीतने वाला कहा गया है और मज्झिम निकाय में उल्लेख है कि बौद्ध भिक्षु अपना परिचय श्रमण' कहकर दिया करते थे। इसीलिए विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग किया गया जो जैन धर्म से ग्रहीत है।
श्रमण प्रधान जैन धर्म से बौद्ध धर्म ने श्रमण की परम्परा को स्वीकार किया। इसका परिणाम हुआ कि बार्थ जैसे यूरोपीय विद्वानों ने जैन और बौद्ध धर्म को एक ही मानकर श्रमण शब्द की व्याख्या करने लगे और भारतीय संस्कृति में दोनों धर्म (जैन और बौद्ध) के भिक्षुओं के लिए श्रमण शब्द का व्यवहार किया जाने लगा। वस्तुतःश्रमण शब्द का प्रयोग मुनियों और तपस्वियों