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श्रीलंका की कला में बौद्ध धर्म का वैश्विक अवदान
स्वीकार किया है कि महावंस में इस महास्तूप के वर्णन का लक्ष्य आन्ध्र देश में निर्मित अमरावती और नागार्जुनीकोण्ड के महाचैत्य थे । आन्ध्र स्तूपों के शिलापट्टों पर अनेक प्रकार के रूपक या अलंकरण उत्कीर्णित किये गये हैं जो महावंस" के विवरणों से साम्य रखते हैं । आन्ध्र स्तूपों के चारों दिशाओं में चार मंच निर्गत रूप में बनाये जाते थे । उनमें से प्रत्येक में पांच पूजा स्तम्भों को स्थान दिया जाता था जिन्हें आयक - खम्भ (आर्यक - स्कम्भ ) कहा जाता था । आन्ध्र स्तूपों की यह विशेषता भी महावंस में वर्णित है। 7 महावंस में महास्तूप के निर्माण में मेदवर्ण पाषाण का उल्लेख है उससे भी आन्ध्र स्तूपों की ही सूचना प्राप्त होती है जो धौले रंग के पत्थरों से निर्मित हैं । इन विवरणों के आधार पर इनसे कई सदी पूर्व निर्मित साँची और भरहुत के महाचैत्यों के भव्य निर्माण की कल्पना की जा सकती है। गहरी नींव भरकर, अण्ड भाग, हर्मिका, वेदिका, तोरण आदि का निर्माण, अनेकों प्रकार के अलंकरण और धार्मिक अभिप्रायों की सज्जा एवं रूपवती देवकन्याओं की विविध मुद्राओं में कल्पना जिनका दिग्दर्शन वेदिकाओं पर होता है, सबकी पृष्ठभूमि में आकृति एवं वास्तु1-विधान सम्बन्धी दीर्घकालीन प्रयत्न निहित था ।
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थूपवंस में बुद्ध के परिनिर्वाण काल से लेकर दुट्टग्रामणी के समय तक निर्मित स्तूपों का क्रमबद्ध विवरण प्राप्त होता है । देवानांप्रियतिष्य ने अपने भाई की पत्नी अनुला देवी की संघमित्रा द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद सम्पूर्ण लंका द्वीप में एक-एक योजन के फासले पर स्तूपों का जाल बिछा दिया ! इन स्तूपों में रखने के लिए तथागत के शरीर के अवशिष्ट चिन्हों को उसने श्रामणेर सुमन को भेजकर अपने मित्र जम्बुद्वीप के राजा अशोक से मंगवाया था। महास्तूप में रखने के लिये बुद्ध के शरीर के अवशेष वही थे जिन्हें रामगाम के कोलियों ने अपने यहाँ स्थापित किया था । निःसन्देह देवानांप्रियतिष्य अशोक से प्रभावित था जिसने 84000 स्तूपों के निर्माण का दावा किया है। वंस साहित्य के विवरणों से यह भी स्पष्ट है कि भगवान बुद्ध के छः केशों के ऊपर स्तूप का निर्माण किया गया था और सिलाकाल को उसका प्रथम रक्षक नियुक्त किया गया था ।° राजा वृषभ ने 10 स्तूपों का निर्माण कराया था।" इसी प्रकार पराक्रमबाहु और राजातिष्यक ने स्तूप और विहार दोनों का निर्माण कराया था 12