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बौद्ध धर्म एवं भिक्षुणी संघ
अरण्यवास करती थीं।'' भिक्षुओं के लिए यह आवश्यक था कि वह भिक्षुणियों को उपदेश दें, यदि वह ऐसा नहीं करतीं तो वह दोष की भागी होती थीं । " संघादिशेष के आरोप पर भिक्षुणी को अपना पक्ष भिक्षु एवं भिक्षुणी दोनों संघों में रखना पड़ता था।” भिक्षुणियों का संघीय जीवन भिक्षुओं के समान ही था । चीवर में उत्तरासंग, अंतरावासक, अंगरखा और उदकसारी धारण करने का विधान था । प्राप्त नए चीवर को काले, नीले रंग या कीचड़ से दुर्वण बना लेना आवश्यक था । " भिक्षुणी नहाने के लिए जनाने घाट का प्रयोग करती थीं ।" भोजन के लिये भिक्षुणियां समूह में जाती थीं तथा भिक्षा मांग कर जीवन यापन करती थीं।° अकेने भिक्षाटन करना वर्जित था ।" भिक्षु को देख कर भिक्षुणियों को अपना पात्र खोलकर उन्हें दिखाना तथा भोजन के लिए आमंत्रित करना आवश्यक था। अधिक भोजन होने पर भिक्षु भिक्षुणियों को अपने संघों को भोजन अर्पित करना पड़ता था ।2 यदि पूरे संघ को कोई लाभ सत्कार मिलता तो भिक्षु - भिक्षुणी संघ दोनों का बराबर हिस्सा दिया जाता था । पालि साहित्य में भी उल्लेख मिलता है कि भिक्षुओं की तुलना में भिक्षुणियों की स्थिति निम्न थी । ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि संघ में भिक्षुणियों की स्थिति श्रेष्ठ थी जिसकी बुद्ध ने भी प्रशंसा की है। 24 खेमा भिक्षुणी की मेघाविता सर्वविदित ही है 25
अभिलेखिक स्रोतों से स्पष्ट होता है कि मौर्य काल तक भिक्षुणी संघ का प्रभाव था, क्योंकि अशोक के सारनाथ, सांची, कौशाम्बी के अभिलेखों एवं वैराट - प्रज्ञापन में भिक्षुणी का उल्लेख हैं । मौर्योत्तर काल में भिक्षुणियों की स्थिति हीन होती गई। बाद में अभिलेखों में उनके लिए किसी सम्मानित उपाधि का आभाव मिलता पर उनका अस्तित्व किसी न किसी रूप में नवीं, दशवीं शती तक बना रहा 126
सन्दर्भ
1. रीस डेविड्स, सिस्टर्स, भूमिका, पृ० 24, 27 ।
2. ओल्डेनबर्ग, 1882, 377, 378 ।
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3. रीस डेविड्स, सिस्टर्स, भूमिका, पृ० 32, गाथा, 69 ( सुन्दरी) । 4. विनय सुत्तविभंग, भिक्खुनी पातीयोक्ख ।