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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
प्रभाकर लाल
छठी शताब्दी ई० पू० में आविर्भूत होने वाले अरूढ़िवादी सम्प्रदायों के आचार्यों में जैन धर्म के महावीर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है । वे जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं थे । किन्तु हम उन्हें छठीं शताब्दी ई०पू० के जैन आन्दोलन का प्रवर्तक कह सकते थे। जिस समय महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ उस समय ऊँच-नीच के भेद भाव रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं जटिल याज्ञिक कर्मकाण्डों से ऊबा हुआ वर्ण पर आधारित जनमानस जीवन यात्रा के लिए एक ऐसे सुगम और सुबोध मार्ग की खोज में था जो क्रूर हिंसा, अमानवीय घृणा, वर्गगत-भेद-भाव एवं धर्मान्धता से शून्य हो । महावीर स्वामी ने इस बात के लिए प्रयास किया कि भारत का जनमानस हिंसावृत्ति, अन्धविश्वास, जाति, भेद-भाव, कर्मकाण्ड से मुक्त हो तथा सदाचरण एवं पंचमहाव्रतों के पालन द्वारा वास्तविक युक्ति के मार्ग पर आरूढ़ हो अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करे ।
जैन धर्म में वेद की अपौरुषेयता को अस्वीकार किया गया और वेदवाद का विरोध किया गया । इसी प्रकार यज्ञ, कर्मकाण्ड के लिए भी जैन धर्म में कोई स्थान नहीं था । ब्राह्मण धर्म के वर्ण व्यवस्था की भी आलोचना की गयी है। जैन धर्म के सप्तभंगी सिद्धान्त के अनुसार वेदवाद सर्वमान्य प्रमाण नहीं हो सकता था। घोर अहिंसावादी होने के कारण पशु-वध के विधान वाले यज्ञ का भी विरोध करना जैन धर्म के लिए स्वभाविक था। जैन धर्म में निवार्णद्वार सभी जाति तथा सभी वर्गों के लिए खुला था । पार्श्वनाथ के समान ही महावीर स्वामी ने भी ब्राह्मण धर्म के यज्ञ-विधान तथा कर्मकाण्ड पर प्रहार किया। यज्ञ