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बौद्ध वाङ्मय में महिला विमर्श अधिक स्वतंत्र थे। जिस प्रकार बुद्ध द्वारा स्थापित लक्ष्य किसी खास वर्ग में पैदा हुए लोगों के लिए नहीं था, उसी प्रकार यह केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं था। दोनों ही स्थितियां परम्परागत सामाजिक व लिंग विकृतियों से कहीं परे सद्गुण व आध्यात्मिक सम्भावना को खोजने के प्रयास को प्रदर्शित करती हैं। दोनों को ही वैयक्तिकता की एक नई उभर रही चेतना के साक्ष्य के रूप में देखा जा सता है, जिसने वैदिकोत्तर काल में सीमित जैविक व सामाजिक बाध्यताओं पर अग्रता लेने की शुरुआत की। बहुत-सी महिलाओं ने बुद्ध द्वारा मुहैया कराये गये इस अवसर का फायदा उठाया। अनेक महिलाएं बुद्ध की हितकारिणयां थीं, जो इस बात का संकेत है कि उस समय न केवल बड़ी संख्या में स्वतंत्र साधनों वाली महिलाएं थीं, बल्कि नवजात संघ को पालने-पोसने में उनकी भूमिका भी प्रशंसनीय थी। बुद्ध की शिष्याओं में कुछ साधारण शिष्याएं ही बनी रहीं और कुछ ने भिक्षुणी बनने के लिए सांसारिक मोहमाया को त्याग दिया। भिक्षुणी या कुंआरी की भूमिका में, मानवीय अन्तः शक्ति की उपलब्धि के लिए लैंगिकता के महत्व को अनदेखा किया जा सकता था। जननी की भूमिका में, कामवासना को सामान्यतया एक नियंत्रित अवस्था के रूप में देखा गया है। बुद्ध ने पुरुषों व महिलाओं को एक एकीकृत व्यक्तित्व के पूरक पहलुओं के तौर पर करुणा व बुद्धि के रूप में देखा। निस्सन्देह गौतम के अनुचरों में कई महिलाएं थीं जो पूर्ण रूप से प्रबुद्ध मानी जाती थीं। भारतीय बौद्ध साहित्य का प्रारम्भिक स्तर इस तथ्य को मानता है कि महिलाएं अर्हत् बन सकती थीं और कई बनीं भी जो मानवीय अस्तित्व को यथार्थ बनाने वाले मानसिक एवं जैविक दुःखों से पूर्णतः मुक्त थीं। त्रिपिटक में उपलब्ध सूचना के अनुसार महिलाओं में ऐसी अर्हतों के कई उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया था और यहाँ तक कि मगध के राजा की पटरानी, खेमा जैसी महिलाओं के कुछ उदारहण भी हैं, जिन्होंने गृहस्थ जीवन त्यागने से पहले ही पूर्णतः बुद्धत्व प्राप्त कर लिया था। पायचारा, सकुला, वाशिष्ठी, विजया, कृषा, सुकरीनन्दा, सुमेधा, जयन्ती, अनोपमा, सोणा जैसी कई प्रसिद्ध महिला अनुचर धर्म-प्रवचन में निपुणता के लिए जानी जाती थीं। खेभा जैसी महिलाओं के प्रति, धर्म का गहरा ज्ञान रखने के लिए, स्वयं बुद्ध के मन में उच्च श्रद्धा थी। कोशल नरेश प्रसेनजित् स्वयं उनकी सेवा में गया