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श्रमण-संस्कृति बुद्धकालीन अर्थव्यवस्था में साझा व्यापार का अपना एक विशिष्ट महत्त्व था। पूँजी समान मात्रा में लगाना और लाभ एवं हानि में साथ-साथ रहना इस प्रकार के व्यापार की पहली मुख्य शर्त हुआ करती थी। यह किन्तु, कभी एक पक्ष दूसरे पक्ष से कहीं ज्यादा मुनाफे का अंश हड़प लेना चाहता था। इस व्यापार के प्रतिकूल आचरण का धोतक था और इसी से इसका अन्त भी होता था।
बुद्धकालीन अर्थव्यवस्थ में दूसरों को कर्ज देने की एक व्यावसायिक परम्परा का पता चलता है। यद्यपि, कर्ज देने सम्बन्धी किन्ही शर्तों का उल्लेख तो नहीं मिलता, पर ब्याज पर रूपयों के लेन-देन के प्रमाण मिलते हैं । यद्यपि कितना ब्याज दिया जाता था, इसका सही तथ्य प्राप्त नहीं होता, किन्तु 18 प्रतिशत की दर पर धन दिया गया था ऐसा उल्लेख मिला है। कर्ज का क्षेत्र बहुत व्यापक था। नगरों में रहने वाले समृद्ध सेठों का यह एक पारम्परिक व्यवसाय बन गया था। गाँवों में बसने वाले अनेक लोग इनसे बतौर कर्ज एक निश्चित धनराशी लेते थे, जिसकी उगाही के लिए वे बराबर गाँवों का दौरा किया करते थे।” इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्ज का लेन-देन सदा सुरक्षित नहीं था। यदि कर्जदाता पिता धन की उगाही किये बगैर मर गया था तो माता अपने पुत्र को इसकी उगाही के लिए प्रेरित करती थी जिससे कर्जदार व्यक्ति बेईमानी न कर सके। एक अन्य उल्लेख के अनुसार पिता की मृत्यु हो जाती तो उसका पुत्र उस व्यवसाय को संभालता था, पर किसी भी सूरत में पिता द्वारा दिये गए कों की उगाही के लिए वह प्रयास करता रहता।" प्राप्त विवरणों से यह भी स्पष्ट होता है कि व्यापार में प्रथम चरण में पूँजी लगाने के लिए व्यापारी को कर्ज देने वाली कोई सरकारी संस्था अभी तक अस्तित्व में नहीं आयी थी।ऋण की पूँजी प्रथम चरण में जहाँ उत्साहवर्द्धन का कार्य करती है, वहीं समय पर नहीं लौटाने पर यह स्थायी दुःख का और मानसिक वेदना का कारण भी बनती है।
पालि निकायों में सार्थवाह की बड़ी रोचक सूचनायें प्राप्त होती हैं। यह व्यापारियों का वह समूह था जो देश-देशान्तर की यात्रा करके अपना माल बेचा करता था। जिस समूह में पाँच सौ व्यापारियों की संख्या रहती उसे