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जैन धर्म में अहिंसा सिद्धान्त एवं उसकी प्रासंगिकता
ममता पाण्डेय
जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का अप्रतिम योगदान जैनधर्म के विकास में विश्वप्रसिद्ध है महावीर के पूर्ववर्ती जैन तीर्थंकरों के मूल तत्वों का ज्ञान तत्वार्थसूत्र की सिद्धिसेन की टीका से होती है महावीर ने अपने संशोधित, परिवर्तित एवं परिवर्द्धित धर्म में ऋषभनाथ की सर्वस्व त्याग रूप अकिंचन, मुनोवृत्ति, नीरीहिता, नेमिनाथ की अहिंसा तथा पार्श्वनाथ के चातुर्याम को स्वीकार करते हुए अपने ब्रह्मचर्य तत्व को जोड़कर जैनधर्म का महत्वपूर्ण विकास किया जैन धर्म एक ओर अतिव्यापक तथा दूसरी ओर गाम्भीरता से युक्त है इस दर्शन में जहाँ एक व्यक्ति की उन्नति की ओर ध्यान दिया गया है वहीं पर दूसरी ओर समष्टि के कल्याण की कामना भी की गयी है जैन ईश्वर को नहीं मानते। वे तीर्थंकरों अर्थात् जैनमत के प्रवर्तकों की ही उपासना करते हैं।
जैन दार्शनिक दृष्टि से वस्तुवादी तथा बहुसत्तावादी हैं इसके अनुसार जितने द्रव्यों को हम देखते हैं वे सभी सत्य हैं। संसार में दो तरह के द्रव्य हैं जीव और अजीव। प्रत्येक सजीव द्रव्य में, चाहे उसका शरीर किसी भी श्रेणी में क्यों न हो जीव अवश्य रहता है इसलिए जैन अहिंसा सिद्धान्त को अधिक महत्व देते हैं जैन धर्म में अहिंसा का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक बताया गया है जैन धर्म का अहिंसा सिद्धान्त नवीन सिद्धान्त नहीं है परन्तु इस मार्ग में वैदिक धर्म की अपेक्षा अहिंसा पर अधिक बल दिया गया है महावीर स्वामी का सिद्धान्त