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47 बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता (भारतीय संस्कृति के प्ररिप्रेक्ष्य में)
इन्दुधर मिश्र
ईसा पूर्व छठी शताब्दी अत्यधिक धार्मिक उथल-पुथल का युग था। पूरे विश्व के सुधारकों ने समकालीन सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों का विरोध किया तथा नवीन सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था का पुनर्निमाण करने का प्रयास किया। चीन में कनफ्यूशियस, ईरान में जोरोथुस्ट्रा, यूनान में परमानाइड्स और जडिया में जेरेमिया के कारण सामाजिक तथा धार्मिक जागरण का जन्म हुआ। भारत में ऐसे दो तेजस्वी व्यक्ति हुए। पहले महावीर, जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की और दूसरे गौतम बुद्ध, जिन्होंने बौद्ध धर्म को जन्म दिया। इन दोनों धर्म प्रवर्तकों ने प्राचीन अस्त-व्यस्त समाज में नवजीवन का संचार किया। उन्होंने पुरोहितों के अत्याचार, धर्म के कर्मकाण्डीय स्वरूप, जाति-प्रथा की क्रूरता और ब्राह्मणों के प्रभुत्व आदि का विरोध किया। उन्होंने स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए सामाजिक समानता, न्याय तथा स्वतंत्रता का समर्थन किया था, वेदों और वैदिक कर्मकाण्डों का खण्डन किया, यज्ञों की निन्दा की तथा अहिंसा, अपरिग्रह व प्रेम के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। ये दोनों धर्म हिन्दू-धर्म के सुधरे हुए नवीन रूप हैं। ये दोनों धर्म आर्य संस्कृति की पृष्ठभूमि में जन्मे तथा उपनिषदों के दर्शन से अनुप्राणित थे। कर्म, आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, अहिंसा, आदि के बारे में उनके विचारों को उपनिषदों से प्रेरणा मिली थी। अन्ततः इन दोनों धर्मों की अपनी-अपनी प्रासंगिकता बनी रही।
बुद्ध मध्यम मार्ग के उपदेशक थे। उन्होंने अनियंत्रित भोग तथा कायाक्लेश