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जैन धर्म के अहिंसा-सिद्धान्त का ब्राह्मण
परम्परा पर प्रभाव
विपुला दुबे
भारतीय संस्कृति में ब्राह्मण एवं श्रमण परम्पराओं को समान रूप से प्रवाहित होने का अवसर मिला, जो भारतीयों की बहुआयामी जीवन दृष्टि का परिणाम था। इनमें ब्राह्मण अर्थात् वैदिक प्रवृत्तिमार्गी परम्परा के अन्तर्गत गार्हस्थ्य जीवन की स्वीकृति थी, जिसमें वर्णाश्रम व्यवस्था की अवधारणा के अनुरूप जीवन का निर्वाह आवश्यक माना गया, यथा 'यज्ञ-ब्रह्म' (अग्निचिति) का सम्पादन प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्तव्य था। यह यज्ञ सन्तानोत्पत्ति हेतु सम्पन्न होता था। यहाँ 'अणु' हिंसा को रोकना सम्भव न था यहाँ तक कि वैदिकी धारा में वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना राजाओं के कर्त्तव्य एवं उपलब्धियों में समाहित था।' सम्प्रभुता, देवलोक विजय, स्वर्ग प्राप्ति का मूलाधार 'यज्ञ' था, यज्ञ की व्यापकता प्रायः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में थी, जो हिंसा प्रधान थी। यही कारण था कि प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा में आचार के प्रमुख सिद्धान्त के रूप में 'अहिंसा' आरम्भ में प्रतिष्ठित नहीं हो सका। अस्तु जैन अहिंसा जो मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी सजीव को (जैन मत ने जड़ में जीवन-चेतना को स्वीकृत कर उसे भी आघातित न करने का आह्वान किया) दुःख न पहंचाने का निषेध करता है उसको विकसित होने का वह फलक वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषकों के दर्शन में नहीं मिल सका जो आकाशीय फलक निवृत्तिमार्गी जीवन धारा के पोषकों विशेषकर जैनियों के द्वारा प्रदान किया गया।
इसमें संदेह नहीं कि 'अहिंसा' को जैनियों ने जो महत्त्व दिया उसकी वह