________________
जसवल से प्राप्त नवीन सूर्य प्रतिमाएं
287 प्रथम प्रतिमा अपने पाषाण के आधार पर गुप्तोत्तर युग की प्रतीत होती है। इस प्रतिमा में खजुराहों के अनेक मूर्तियों प्रदर्शन की परम्परा के समान ही सूर्यदेव के साथ ब्रह्मा और विष्णु को प्रदर्शित करके सूर्यनारायण अथवा हिरण्यगर्भ पितामह के रूप को प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है।
उल्लेखनीय है कि ईषा की प्रारम्भिाक शताब्दियों में सूर्य की मूर्ति पूजा का प्रचलन भारत के पश्चिमोत्तर भाग से प्रारम्भ होकर पूरे भारत में श्नः श्नः फैलता गया। इसके प्रमाण न केवल पश्चिमोत्तर बल्कि पूर्वी भारत तक मिलते हैं। अपितु दक्षिण भारत में भी सूर्य के अनेक देवायतन स्थापित किये गये। साहित्यिक स्रोतों के आधार पर भविष्य पुराण में साम्ब के द्वारा मूल स्थान (मुल्तान) में सूर्य की मन्दिर की स्थापना, एवं सूर्यसरोवर में स्नान कर चर्म रोग से निवृत्त का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार वराहमिहिर ने अपने वृहतसंहिता में उदिच्य वेष में सूर्य मूर्ति के निर्माण एवं प्रतिष्ठा का विस्तृत उल्लेख किया गया है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों के रूप में खजुराहो का चित्रगुप्त मन्दिर, उत्तर प्रदेश स्थित बहराइच का बालार्क मन्दिर एवं सरोवर, तुर्कपट्टी महुअवा का सूर्य मन्दिर, रूद्रपुर स्थित अधरंगी ग्राम की सूर्य मूर्ति एवं मन्दिर, बिहार के आरा जिले में देववर्नाक का सूर्य मन्दिर एवं वाराणसी स्थित अस्सी घाट पर लोलार्क मन्दिर एवं सवाधिक महत्वपूर्ण पूर्वी भरत में सिीत 'पूर्व की काशी' के निकट स्थित कोणार्क मन्दिर इसके ज्वलन्त उदाहरण है। ये सभी स्थल सूर्योपासना के सशक्त केन्द्र थे। सुदूर उत्तर में कश्मीर का मार्तण्ड मन्दिर, सुदूर दक्षिण में स्थित सूर्यनारकोइल ग्राम का सूर्य मन्दिर सम्पूर्ण भारत में सूर्य पूजा के अत्यन्त सबल प्रमाण हैं। इसी सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि भारत में सूर्य पूजा की प्राचीन पद्धति उनके प्रतीक अर्थात् मण्डल के रूप में की जाती थी। जिसके साक्ष्य सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं। सूर्य की मूर्ति पूजा का प्रारम्भ व्यापक रूप में कुषाण काल से दिखाई देता है। इस उपासना के मूल में शकद्विपीय पुरोहित ने साम्ब की सूर्य पूजा सम्पन्न कराई थी। सम्भवतः यह परम्परा चलती रही। सम्पूर्ण भारत में अनेक शकद्विपीय पुरोहितों के नाम अनेक महत्वपूर्ण मन्दिरों के साथ जुड़े हुए हैं। जैसे देववर्णाक अभिलेख के अनुसार वरुण देव की पूजा भोजक नामक शकद्विपीय ब्राह्मण ने की थी। इसी