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बौद्ध संघ में भिक्षुणियों की स्थिति एवं
भिक्षुणी संघ का विकास
राघवेन्द्र प्रताप सिंह
श्रमण परम्परा में भगवान बुद्ध जैसा महान व्यक्तित्व भी नारी जाति को संघ में ससंकोच ही प्रवेश दे पाया। वस्तुतः नारी जाति को प्रव्रजित होने से रोकने के दो कारण थे। प्रथम यह कि पुरुष सदैव से स्त्री को एक भोग्या के रूप में देखता रहा और इसी कारण उसे स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए सहमत नहीं हो सका । दूसरा कारण यह था कि नारी जाति के संघ प्रवेश से श्रमण वर्ग के चारित्रिक स्खलन की संभावनाएं अधिक बढ़ जाती थीं। बुद्ध का भिक्षुणी संघ के निर्माण में जो संकोच था, उसका मूल कारण यही था। किन्तु दूसरी
ओर अनेक विवशतायें भी थीं जिनके कारण धर्मशास्त्राओं को भिक्षुणी संघका निर्माण करना पड़ा। पति के प्रव्रजित होने पर अथवा पति एवं पुत्र की मृत्यु हो जाने पर नारी को सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए भिक्षुणी बनना एकमात्र विकल्प था। यही कारण है कि भिक्षु संघ की अपेक्षा भिक्षुणी संघ की सदस्य संख्या में सदैव अभिवृद्धि होती रही।
बौद्ध संघ भिक्षु-भिक्षुणी, उपासक-उपासिका भागों में विभाजित था, परन्तु संघ के मूल स्तम्भ भिक्षु-भिक्षुणी ही थे। बौद्ध संघ में भिक्षुओं की तुलना में भिक्षुणियों की स्थिति निम्न दिखलाई देती है। सौ वर्ष की उपसम्पन्न भिक्षुणी को सद्यः उपसम्पन्न भिक्षु को अभिवादन करना, अंजलि जोड़ना तथा उसके सम्मान में खड़ा होना पड़ता था। इसके विपरित भिक्षु किसी भी भिक्षुणी के सम्मान में न तो खड़ा होता था और न ही अंजलि जोड़ता था। यदि