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श्रमण-संस्कृति
विभिन्न यात्राओं और उपदेशों के माध्यम से बौद्ध धर्म-संघ को बहुविध लाभ-सत्कार मिला और उसकी सर्वक्षेत्रीय समृद्धि हुई। स्वयं बुद्ध के समय में ही यह स्थल बौद्धों की दृष्टि से इतना महत्व प्राप्त हो गया कि आनन्द ने बुद्ध महापरिनिर्वाण के योग्य 7 - महानगरियों में से इसे भी एक कहा और बुद्ध ने बौद्ध धर्म के चार तीर्थ स्थलों में वाराणसी की भी घोषणा की।
वाराणसी-सारनाथ के अतिरिक्त काशी के अन्य कई स्थल भी बुद्ध तथा उनके अनुयायियों के अनेक उपदेश देने तथा लाभ सत्कार अर्जित करने की दृष्टि से उल्लेखनीय है। इनमें मच्छिकासण्ड और कीटागिरि का विशेष स्थान है।
मच्छिकासण्ड के चित्रगृहपति का संघ के विशिष्ट सहायक के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । अचेलकस्सप को संघदीक्षार्थ - प्रोत्साहन, महानाम प्रमुख भिक्षु संघ को अम्बाटक वन का दान तथा कई बार बौद्ध भिक्षुओं को अपने यहाँ भोजन- आमंत्रण जैसे कार्यों के लिए प्रारम्भिक पालि साहित्य में इसकी एकाधिक चर्चा है । अध्यात्म-क्षेत्र में भी इसकी प्रशंसा प्राप्त होती है। इसके द्वारा मरणासन्न अवस्था में परिजनों एवं मित्रों की त्रिशरण में श्रद्धा एवं दान का निर्देश सद्धर्म के स्थायित्व के प्रति श्रद्धालु उपासकों की उत्सुकता एवं आकांक्षा का प्रतीक ज्ञात होता है।
बुद्ध-चारिका, बुद्ध के आवास तथा अन्य कई दृष्टियों से काशी के कीटागिरी निगम का विशिष्ट स्थान था । अस्सजी एवं पुनब्बसु नामक दो भिक्षुओं के अनुयायी, जो यत्किञ्चित कृत्सित प्रवृत्ति के थे, सम्वाजी के रूप में यही रहते थे। इन भिक्षुओं की एक उपासक द्वारा निन्दा करने पर बुद्ध ने सारिपुत्र और मोद्गल्यायन को उन्हें दण्डित करने के लिए भेजा था । कीटागिरि
कम से कम 25-26 भिक्षुओं के एक साथ रहने योग्य एक बड़ा विहार था । एक अवसर पर जब बड़े भिक्षु संघ के साथ बुद्ध यहाँ आये तब अस्सजी और पुनब्बसु के अनुयायियों ने उनका तो आदर-सत्कार किया पर सारिपुत्र और मोद्गल्यायन को आवास देने से मना कर दिया । इन्हीं भिक्षुओं के संदर्भ में बुद्ध ने कीटागिरी सुत का उपदेश दिया था।
प्रायः निश्चित पहचान वालों में काशी के आठ भिक्षुओं, दो उपासकों तथा तीन उपासिकाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। मात्र एक भिक्षुणी का