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ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के प्रमुख तीर्थ स्थलों का महत्व 249 रचित” "मानसोल्लास" हैं जिसमें उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के अनेक तीर्थ स्थलों का वर्णन किया गया है। 12वीं शताब्दी ई० के प्रसिद्ध विद्वान हेमचन्द्र ने 'द्वयसारकाव्य' में अनेक तीर्थ स्थानों का उल्लेख किया गया है।
भागवत पुराण, मत्स्य पुराण, पद्मपुराण के आधार पर कालान्तर में अनेक लेखकों ने अपनी रचनाओं में पवित्र स्थलों की चर्चा की है। शिव पुराण में वर्णित ज्योर्तिलिंगों की पहचान समय-समय पर की गयी है। इसी तरह शक्ति तीर्थ की भी चर्चा की गयी है। "वृहस्पत्य" - अर्थशास्त्र में 8 शक्तिपीठों में विन्ध्यवासिनि दुर्गा भद्रकाली को सबसे सर्वोपरि माना गया है। नरसिंह की पाण्डुलिपि प्रमाणपल्लव में भी अनेक प्रमुख तीर्थ स्थलों का वर्णन मिलता है, जो सम्भवतः लक्ष्मीधर के बाद लिखा गया है। इसी तरह अनेक पवित्रतीर्थों के सन्दर्भ समकालिक अभिलेखों एवं एतिहासिक ग्रन्थों में लिखे गये हैं। विहार में शाहाबाद जिले के तिलोठू स्थान से प्राप्त नायक प्रताप धवल का एक 'प्रतिमालेख' विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
दसवीं से बारहवीं शताब्दी के प्रमुख तीर्थ स्थलों में वाराणसी, प्रयाग एवं गया, को प्रमुख अर्ध्य तीर्थ स्थल मानते हुए नारायण भट्ट ने त्रिअर्ध्यस्थली के नाम से सम्बोधित किया है। वाचस्पति मिश्र ने भी तीर्थचिन्तामणि में पुरुषोत्तम अर्थात् पुरी जगन्नाथ को बराबरी का दर्जा दिया है। ब्रह्मपुराण के अनुसार ज्येष्ठमास के अर्धशुक्ल पक्ष के दसवें दिन 52 तीर्थस्थल और 32 पवित्र नदियाँ का पुरी अर्थात् पुरुषोत्तम में महात्य है। पुरुषोत्तम का यह पुरी स्थित मन्दिर 1198 ई० में अनवांभीम तृतीय ने बनवाया था, जो 'चोलगंगा' का पौत्र था।'
किन्तु गंगाधर के लेख से पता चलता है कि 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पुरी तीर्थस्थल पर विहार और आस पास के ही लोग आते जाते और उनके प्रति आस्थावान थे। इस तीर्थस्थल का देशव्यापी महत्व सम्भवतः 12वीं शताब्दी के बाद ही स्थापित हुआ। कुछ तीर्थस्थल क्षेत्रीय थे और उनकी मान्यता स्थानीय थी, जहाँ तीर्थ यात्रा करते थे, उनमें से वाराणसी, गया और प्रयाग ऐसे तीर्थस्थल है जहाँ पूरे भारतवर्ष से तीर्थ यात्री मोक्ष की कामना से यात्रा करते