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श्रमण-संस्कृति उल्लेख है। कलचुरि नरेश कर्ण के 1047 ई० के गोहरवा पत्र में भी अर्ध्य तीर्थ को गंगा नदी के तट पर स्थित होने का उल्लेख है जिसकी पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। 1093 ई० के चंद्रावती ताम्र-पत्र से अयोध्या तीर्थ के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है कि गहड़वाल नरेश चन्द्रदेव के अश्वनी माह में लगने वाले सूर्य ग्रहण के अवसर पर पाप से मुक्ति हेतु स्वर्गद्वारातीर्थ सरयू और घाघरा नदी में स्नान किया। मदनपाल के 1107 ई० के लेख एवं जयचन्द्र के 1175 ई० वाराणसी ताम्रदान पत्र से काशी, कुशिका, उत्तर कोशल और इन्द्रस्थान जैसे पवित्र तीर्थ स्थलों के संरक्षण एवं रख-रखाव करने का उल्लेख है। कुशिका की पहचान गोमती नदी के तट पर से आधुनिक सुल्तानपुर के कुशपुर या कुशमावनपुर से की जाती है जो राम के पुत्र कुश की राजधानी थी। इन्द्रस्थान की पहचान आधुनिक दिल्ली के पास स्थित इन्द्रप्रस्थ से की जा सकती है, किन्तु इसकी यह सही पहचान नहीं लगती है। इस प्रकार तत्कालीन शासकों द्वारा तीर्थस्थलों को सुरक्षित किये जाने की जरूरत थी, क्योंकि तुर्कों और लुटेरों की निगाहें इन स्थलों पर लूट के लिए लगी थी। सोमेश्वर कृत कीर्तिकौमुदी में तीर्थ यात्रियों शान्तिपूर्ण यात्रा में लुटेरों और हत्यारों से खतरे का उल्लेख है।
1138 ई० के एक अभिलेख में प्रमुख तीर्थ स्थल 'पुरुषोत्तम' का उल्लेख है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि महाभारत के वनपर्व' बल्लालसेन के 'दानसागर' तथा लक्ष्मीधर के 'तीर्थ-विवेचन काण्ड' में पुरी, पुरुषोत्तम या जगन्नाथ की चर्चा ही नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि 5वीं शताब्दी ई० तक 'पुरी' का उतना देशव्यापी महत्व नहीं था जितना कि 12वीं शताब्दी में था इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में पुरी का तीर्थस्थल के रूप में स्थापन हुआ। जीमूलवाहन के कालविवेक में भी ज्येष्ठ मास के पूर्णिमा के दिन 'पुरुषोत्तम' के दर्शन की महिमा का विशेष वर्णन किया गया है।' ___1174 ई० के जबलपुर प्रस्तर शिलालेख से ज्ञात होता है कि एक प्रसिद्ध कल्चुरि राजा के संरक्षण में शैव धर्मानुयायी विमलशिव गोकर्ण, गया, प्रभास आदि तीर्थस्थलों पर धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किया था। सारंगदेव के शासनकाल की एक प्रशस्ति से शिवभक्त 'त्रिपुरात्तक' के तीर्थयात्रा वृत्तान्त का पता चलता